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देखना वो गिर्या-ए-हसरत मआल आ ही गया / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

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देखना वो गिर्या-ए-हसरत मआल आ ही गया
बेकसी में कोई तो पुरसान ए हाल आ ही गया

जुरअत-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना का सबब वो ख़ुद हुए
मेहरबाँ देखा उन्हें लब पर सवाल आ ही गया

दिल को हम कब तक बचाए रखते हर आसेब से
ठेस आख़िर लग गई शीशे में बाल आ ही गया

बे-वफ़ाई से वफ़ा का देते वो कब तक जवाब
दिल ही तो है रफ़्ता रफ़्ता इंफ़िआल आ ही गया

ख़ुद-फ़रामोशी की लज़्ज़त ना-मुकम्मल रह गई
बा-वजूद-ए-बे-ख़ूद तेरा ख़याल आ ही गया

एक मुद्दत से नहीं मिलता था ‘वहशत’ का पता
ले तिरे कूचे में वो आशुफ़्ता-हाल आ ही गया