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दे न पाए / यतींद्रनाथ राही

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(एक पिता का दर्द)
शाम आई
चल दिये लो
कुछ तुम्हें
हम दे न पाए।
चुक गया दिन ही समूचा
सिर खपाया
हाड़ फोड़े
बह गया कितना पसीना
मुष्किलों के
कर मरोड़े
आँधियों में नाव टूटी
पार तक
हम खे न पाए।
क़ीमती
कपड़े खिलौने
पुस्तकें, बस्ते, प्रसाधन
सादगी के मन्त्र का
करते रहे
थोथा सुवाचन
आ निकल अवसर गए
कितने सुफल
हम ले न पाए।
नाम को पितृत्व-क्शमता
ज्ञान को
कुछ व्याकरण था
कवि कोई भीतर बसा था
बाहरी शिष्टाचारण था
चाहिये था जो समन्वय
वह कभी करने न पाए।
पर तुम्हारे पंख थे
ऊँचे इरादे बड़े सपने
जानते हो
साथ जा पाते
कहाँ कब, सदा अपने
थे अँधेरे कक्श कुछ
हम रोशनी
भरने न पाए।
उड़ रहे हो तुम गगन में
छोर क्षितिजों के छुए हैं
कीर्ति विस्तृत है
सितारों तक तुम्हारी खुशबुएँ हैं
कौन सी उपलब्धि है
तुम चाहकर
पाने न पाए।
हो यशस्वी हम यहाँ पर
तान कर सीना खड़े हैं
हैं पिता बस इसलिये तो
आज अब इतने बड़े हैं
श्रेय की इस प्राप्ति को
हम,
प्रेयता धरने न पाए।