दोहा संख्या 471 से 480
 तुलसी सो समरथ सुमति सुकृती साधु सयान।
 जो बिचारि ब्यवहरइ जग खरच लाभ अनुमान।471।
 जाय जोग जग छेम बिनु तुलसी के हित राखि।
 बिनुऽपराध भृगुपति नहुष बेनु बृकासुर साखि।472। 
बड़ि प्रतीति गठिबंध तें बड़ो जोग तें छेमं।
 बड़ो सुसेवक साइँ तें बड़ो नेम तें प्रेम।473।
 सिस्य सखा सेवक सचिव सुतिय सिखावन साँच। 
सुनि समुझिअ पुनि परिहरिअ पर मन रंजन पाँच।।474। 
नगर नारि भोजन सचिव सेवक सखा अगार।
 सरस परिहरें रंग रस निरस बिषाद बिकार।475।
 तूठहिं निज रूचि काज करि रूठहिं काज बिगारि।
तीय तनय सेवक सखा मन के कंटक चारि।476। 
दीरघ रोगी दारिदी कटुबच लोलुप लोग। 
तुलसी प्रान समान तउ होहिं निरादर जोग।477। 
पाही खेती लगन बट रिन कुब्याज मग खेत। 
बैर बड़े सों आपने किए पाँच दुख हेत।478। 
धाइ लगै लोहा ललकि खैंचि लेइ नइ नीचु। 
समरथ पापी सों बयर जानि बिसाही मीचु।479।
सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
 सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग।480।