दो बूढ़े दोस्त / शरद कोकास
बचपन में बिछड़े दो दोस्त
बरसों बाद मिले
यादों पर जमी धूल साफ हुई
कहकहे गूंजे
गूंजी हथेली पर हथेली की थाप
दीवारें चौंकीं
पलटकर देखा राह चलते लोगों ने
कुछ ने आश्चर्य व्यक्त किया
कुछ ने संतोष
हल्की सी नम हुई आँखों की कोर
ज़रा सी ढीली हुई तनी हुई डोर
आत्मीय उलाहनों के साथ
जायज़ शिकायतें आईं ज़बान पर
बहुत दिनों बाद मन खुला
शुरु हुआ बातों का सिलसिला
वे बखानते रहे
जिं़दगी के बेकाबू घोड़े को
साध लेने की शौर्य गाथाएँ
ज़िक्र करते रहे
आसमान से उतरे सुखों का
इतराते रहे अपनी उपलब्धियों पर
गर्व करते रहे हासिल सुविधाओं पर
बातें हुईं बेटों की तरक्की के बारे में
बेटियों की बड़े घर मंे शादी और
दामादों की संपन्नता के बारे में
ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर लेने का दंभ
सर चढ़कर बोलता रहा
तमाम सुख पा लेने का अहम
एक दूजे को तोलता रहा
कहीं भी अकेलापन का ज़िक्र नहीं
पराजय का उल्लेख कहीं नहीं
कोई बात नहीं हताशा की
टूटन का कोई बयान नहीं
कोई प्रदर्शन नहीं
अपनों से मिले जख़्मों का
समय के साथ छूट गए पलों का
एक दूसरे की अनुपस्थिति से हुए
अनदेखे नुकसानों की कोई चर्चा नहीं
अपने शानदार अभिनय पर वे
मन ही मन मुस्कुराते रहे
बीते दिनों की करते रहे जुगाली
कड़वाहटों को चबाते रहे।
-1998