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धरती की छाती पर / रामकुमार कृषक

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धरती की छाती पर
अन्धकार कल भी था
आज भी घना,
भीत भोर
उजियारा मौन अनमना !

क्षितिजों से
जितने भी सूर्य उगे
क्षितिजों पर
भस्म हो गए
सिर्फ एक अँजुरि-भर
रस्म बो गए,

सेतुबन्ध तैरा जो / टूट कब बना !

उज्ज्वलतम
जितने भी पृष्ठ खुले
स्याही
इतिहास बन गई
एकाधिक मिथ्या
सायास जन गई,

नंग-मूढ़ आदम ने / ज्ञान क्या चुना !

08 अप्रैल 1974