भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धरती को सहला जा रे / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शीतल पवन-झकोरा बनकर
धरती को सहला जा रे !
प्यार से बोझल बादल बनकर
अमरित से नहला जा रे I
धरती को सहला जा रे ।।

ताप-भरा जग का आँगन है
पग-पग पर व्याकुल क्रन्दन है
आँखों में दुःख का अंजन है
तू दुखियों का दुखभंजन है
सबका ताप मिटा जा रे ।
शीतल पवन झकोरा बनकर
धरती को सहला जा रे ।।

जीवन में नवजीवन भर दे
प्राणों में नवयौवन भर दे
हर मन में अपनापन भर दे
कल्मष धोकर निरमल कर दे
जगती को हुलसा जा रे ।
शीतल पवन झकोरा बनकर
धरती को सहला जा रे ।।