Last modified on 20 नवम्बर 2014, at 15:32

धरती को सहला जा रे / कांतिमोहन 'सोज़'

शीतल पवन-झकोरा बनकर
धरती को सहला जा रे !
प्यार से बोझल बादल बनकर
अमरित से नहला जा रे I
धरती को सहला जा रे ।।

ताप-भरा जग का आँगन है
पग-पग पर व्याकुल क्रन्दन है
आँखों में दुःख का अंजन है
तू दुखियों का दुखभंजन है
सबका ताप मिटा जा रे ।
शीतल पवन झकोरा बनकर
धरती को सहला जा रे ।।

जीवन में नवजीवन भर दे
प्राणों में नवयौवन भर दे
हर मन में अपनापन भर दे
कल्मष धोकर निरमल कर दे
जगती को हुलसा जा रे ।
शीतल पवन झकोरा बनकर
धरती को सहला जा रे ।।