भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नदिया का पेट काट के / देवेन्द्र आर्य
Kavita Kosh से
नदिया का पेट काट के
ऊँचे हो गए घरौन्दे ।
घुटनों तक रेत में दबी
एक अंजुरी प्यास की नदी
दूसरा विकल्प नहीं है
गीत बचाऊँ कि ज़िन्दगी
सागर बन गए पोखरे
कर के पानी के सौदे ।
शीशी में बन्द सुगन्धी
जैसा ईमान हो गया
काग खुली ख़ाली शीशी
जैसा इनसान हो गया
अंधियारे देखने लगे
खाके किरनों के धोखे ।
पियराए पियराए से
क्यों हैं जीवन के पौधे ।