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नदिया का पेट काट के / देवेन्द्र आर्य

नदिया का पेट काट के
ऊँचे हो गए घरौन्दे ।

घुटनों तक रेत में दबी
एक अंजुरी प्यास की नदी
दूसरा विकल्प नहीं है
गीत बचाऊँ कि ज़िन्दगी
 
सागर बन गए पोखरे
कर के पानी के सौदे ।

शीशी में बन्द सुगन्धी
जैसा ईमान हो गया
काग खुली ख़ाली शीशी
जैसा इनसान हो गया
 
अंधियारे देखने लगे
खाके किरनों के धोखे ।

पियराए पियराए से
क्यों हैं जीवन के पौधे ।