भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नफ़रत का ज़माने में गर नाम नहीं होता / सिया सचदेव
Kavita Kosh से
नफ़रत का ज़माने में गर नाम नहीं होता
इन्सान कभी इतना बदनाम नहीं होता
राधा की मोहब्बत वो मीरा की इबादत है
ये इश्क़ नहीं होता ग़र श्याम नहीं होता
क़िस्मत से जियादा तुम हाथों पे यकीं रक्खो
हो सच्ची लगन जिस में नाक़ाम नहीं होता
ये इश्क़ का अफ़साना है सबसे अलग इसमें
आगाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
यह जा के कोई कह दे इस दौर के ज़ालिम से
ज़ालिम का कभी अच्छा अंजाम नहीं होता
बेटी जो हुई पैदा माहोल में मातम है
बेटा अगर जो होता कोहराम नहीं होता
यह दाद जो मिलती है शेरों पे सिया तुझ को
कोई भी बड़ा इस से ईनाम नहीं होता