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नव हे, नव हे / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
नव हे, नव हे!
नव नव सुषमा से मंडित हो
चिर पुराण भव हे!
नव हे!--
नव ऊषा-संध्या अभिनन्दित
नव-नव ऋतुमयि भू, शशि-शोभित,
विस्मित हो, देखूँ मैं अतुलित
जीवन-वैभव हे!
नव हे!--
नव शैशव-यौवन हिल्लोलित
जन्म-मरण से हो जग दोलित,
नव इच्छाओं का हो उर में
आकुल पिक-रव हे!
नव हे!--
बाँध रहें मुक्ति को बन्धन,
हो सीमा असीम अवलम्बन,
द्वार खड़े हों नित नव सुख-दुख
विजय-पराभव हे!
नव हे!
अपनी इच्छा से निर्मित जग
कल्पित सुख-दुख के अस्थिर पग,
मेरे जीवन से हो जीवित
यह जग का शव हे!
नव हे!
रचनाकाल: जुलाई’१९३४