नहीं है मेरी कविता का कैनवस इतना विशाल / वंदना गुप्ता
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें सारे जहान का
दर्शन शास्त्र समा लूँ
कैसे सम्भोग से समाधि तक
पात्रों को ले जाऊँ
जहाँ विषमता का ज़हर
हर पात्र में भरा है
कैसे प्रेम के अद्वैत को समझाऊँ
कैसे द्वैत को अद्वैत से
भिन्न दिखलाऊँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें सारी दुनिया की
फ़िलासफ़ी समा जाये
जहाँ जो नहीं है
उसको चित्रित कर दूँ
या फिर देखने वाले के
नज़रिये को ही बदल दूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसे सिगरेट के धुँये
के छल्ले बना हवा में
उडा दिया जाये
और उसमें एक शख्स
उसकी वेदना
उसकी मौन अभिव्यक्ति को
व्यक्त किया जाये
चाहे वह उसकी
अभिव्यक्ति हो या नहीं
एक फ़िक्र की चादर को बुनकर
एक रिक्शाचालक के
या एक झोंपडी में रहने
वाले के दुख दर्द का
बयान कर खुद को
अग्रिम पंक्ति में
स्थापित करने का
नौस्टैलज़िया दिखा सकूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें राजनीति के
समीकरणों को
दो दूनी आठ की
भाषा का केन्द्र बना लूँ
कुछ जोड-तोड की
नी्ति को अपना
अपने लिये एक
राजनीतिक मंच बना लूँ
और सराहना या पुरस्कारों
या सम्मानों का ढेर लगा लूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें कहीं मोहब्बत के
तो कहीं नफ़रत के
तो कभी ख्वाबों के
शामियाने लगा लूँ
आखिर किस लिये?
खुद को साबित करने के लिये
कब तक नकाब ओढे रखूँ
कब तक कविता की
सारी सीमायें तोडती रहूँ
हर वर्जना को
अस्वीकारती रहूँ
आखिर कब होगा अंत?
आखिर कब होगा मुक्तिबोध?
कविता का और खुद का
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमे आकाशीय खगोलीय
ब्रह्मांडीय घटनाओं के
समावेश से पूर्णता मिल जाये
इतना आसान कहीं होता है
हर ब्लैक होल में विचरण करना?
ये ब्रह्मांड के अनन्त
अथाह परिवेश से गहरे
कविता के मर्म को जानना
क्या इतना आसान है
जो चंद लफ़्ज़ों का मोहताज़ हो
समीक्षक की दृष्टि भी तो
उसकी सीमाओं तक ही
सीमित है
मगर कविता असीम है
निस्सीम है
अनन्त है
एक छोर से अनन्त के
उस पार तक
जिस का सिरा
कोई नहीं पकड पाया
फिर कैसे बांधूँ
हर उपालम्भ को
कविता के दायरे में
जबकि जानती हूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल