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निकहते-ज़ुल्फ़ से नीन्दों को बसा दे आकर / 'अख्तर' शीरानी
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निकहते-ज़ुल्फ़ से नीन्दों को बसा दे आकर ।
मेरी जागी हुई रातों को सुला दे आकर ।
किस क़दर तीरओ-तारीक है दुनिया मेरी,
जल्वए-हुस्न की इक शमअ जला दे आकर ।
इश्क़ की चान्दनी रातें मुझे याद आती हैं,
उम्रे-रफ़्ता को मेरी मुझसे मिला दे आकर ।
जौके-नादीद में लज्ज़त है मगर नाज़ नहीं
आ मेरे इश्क़ को मग़रूर बना दे आकर ।