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नींद उजड़ी तो निगाहों में मनाज़िर क्या हैं / 'शहपर' रसूल
Kavita Kosh से
नींद उजड़ी तो निगाहों में मनाज़िर क्या हैं
हम कि बे-ताब किसी ख़्वाब की ख़ातिर क्या हैं
बर्ग-ए-मासूम से करते हैं ख़िज़ाँ की बातें
मौसम-ए-सब्ज़ के लम्हात भी शातिर क्या हैं
जैसे उजड़ी हुई बस्ती में इबादत का समाँ
सूखती शाख़ पे बैठे हुए ताइर क्या हैं
क्यूँ बहर-लम्हा बिखरता है यक़ीं का पैकर
तंज़ ओ तश्कीक के असबाब बिल-आख़िर क्या हैं
राह-ए-पुर-ख़ार पे ये चलते बगूले की तरह
रोज़-ए-महशर के पयामी हैं मुसाफ़िर क्या हैं
दर्द-मंदाना सदाक़त के पयम्बर ‘शहपर’
दर्द की बात समझने से भी क़ासिर क्या हैं