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न तुझसे न दिल-ए-ज़ार से उलझता हूँ / 'महताब' हैदर नक़वी

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न तुझसे न दिल-ए-ज़ार1 से उलझता हूँ
मगर मैं इश्क की बेगार से उलझता हूँ

खड़ा हूँ इसी रहगुज़र पे बरसों से
न तेरे दर से, न दीवार से उलझता हूँ

कभी तो मोल लगाता हूँ अपना भी लेकिन
कभी मैं गर्मी-ए-बाज़ार से उलझता हूँ

बड़ो-बड़ों को भी ख़ातिर में मैं नहीं लाता
कभी तो अपने ही मेयार से उलझता हूँ

मैं रोज़-रोज़ गज़ल इस लिए नहीं कहता
ख़याल-ए-ख़ाम2 के इज़हार से उलझता हूँ

1-कमज़ोर दिल 2-अपरिपक्व विचार