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न हँसते हैं, न रोते हैं / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
बहुत-कुछ दे चुके लेकर,
बहुत-कुछ ले चुके देकर;
कहाँ से चल, कहाँ आए,
तरंगों में तरी खेकर;
खड़े इस तीर पर अब हम
न पाते हैं, न खोते हैं!
बढ़ी सरिता, गई लेती
उमंगों की हरी खेती;
किनारे पर उगी है अब
महज सूखी मरी रेती;
गले बीये, छले माली,
न उगते हैं, न बोते हैं!
अँधेरे में उजाला हो,
गरल-घट प्रेम-प्याला हो
रहे अपना लहू देते
कि भू का मुँह न काला हो;
मगर, कुछ दाग ऐसे हैं,
न धुलते हैं, न धोते हैं!
समुन्दर छान जीवन के
रतन लाते रहे मन के;
कटीं रातें, दिवस कितने,
लुटाते लाभ लोचन के;
अभी चुप हैं कि झुटपुट है,
न जगते हैं, न सोते हैं!