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पंचतन्त्र / ब्रजेश कृष्ण

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अब न वैसे जंगल रहे
न शेर, न जंगल के वासी
शेरों को पता है पुरानी कहानियाँ
नामुमकिन हैं उन्हें मारना
कुएँ में उनकी परछाई दिखाकर
अब हर हाल में मारा जाता है खरगोश

शेर अब माँदों में नहीं रहते
वे बीच जंगल में सबके साथ रहते हुए
हँसते हैं जंगल की तरह
वे जंगल के हित की बात करते हैं
और अक्सर करते हैं
संगीत सन्ध्या का आयोजन
पूछते हैं खरगोश से या मेमने से या बकरी से-
प्यारी बकरी, तू गाना गायेगी
बकरी बिल्कुल भी नहीं जान पाती
कि अब वह अपनी
मिमियाहट भी नहीं बचा पायेगी

फिर खू़ब होता है नाच
बजाये और गाये जाते हैं कई राग
झूम-झूम कर सुनता है सारा जंगल
उस एक बकरी के सिवा।