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पंचम अंक / भाग 3 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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पुरुरवा
रुला दिया तुमने तो मेरे चन्द्र! व्यथा यह कह कर.
सुना देवि! यह लाल हमारा कितना तृषित रहा है
माँ के उर का क्षीर, पिता का स्नेह नहीं पाने से?

[उर्वशी अदृश्य हो चुकी है.]

महामात्य
महाराज! आश्चर्य! उर्वशी देवि यहाँ नहीं हैं?
कहाँ गई? थीं खड़ी अभी तो यहीं निकट स्वामी के?

पुरुरवा
क्यॉ, जाएँगी कहाँ विमुख हो इस आनन्द सघन से?
किंतु, अभी वे श्रांत-चित्त, कुछ थकी-थकी लगती थीं;
जाकर देखो, स्यात् प्रमद-उपवन में चली गई हों
शीतल, स्वच्छ, प्रसन्न वायु में तनिक घूम आने को.

सुकन्या
वृथा यत्न; इस राज-भवन में अब उर्वशी नहीं है.
चली गई वह वहाँ, जहाँ से भूतल पर आई थी
खिंची आपके महाप्रेम के आकुल आकर्षण में.
भू वंचित हो गई आज उस चिर-नवीन सुषमा से.
महाराज! उर्वशी मानवी नहीं, देव-बाला थी;
चक्षुराग जब हुआ आपसे , उस विलोल-हृदया ने,
किसी भाँति, कर दिया एक दिन कुपित महर्षि भरत को.
और भरत ने ही उसको यह दारुण शाप दिया था,
“भूल गई निज कर्म, लीन जिसके स्वरूप-चिंतन में,
जा, तू बन प्रेयसी भूमि पर उसी मर्त्य मानव की.
किंतु, न होंगे तुझे सुलभ सब सुख गृहस्थ नारी के,
पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाएगी;
सो भी तब तक ही जिस क्षण तक नहीं देख पाएगा
अहंकारिणी! तेरा पति तुझसे उत्पन्न तनय को.”
वही शाप फल गया, उर्वशी चली गई सुरपुर को.
महाराज! मैं तो इसके हित उद्यत ही आई थी!
क्योंकि ज्ञात था मुझे, आयु को जभी आप देखेंगे,
गरज उठेगा शाप, उर्वशी भू पर नहीं रहेगी.
किंतु, आयु को कब तक हम वंचित कर रख सकते थे
जाति, गोत्र, सौभाग्य, वंश से, परिजन और पिता से?
हुआ वही, जो कुछ होना था, पश्चाताप वृथा है.
अब दीजिए आयु को वह, जो कुछ वह माँग रहा है.
महाराज! सत्य ही आयु का हृदय बहुत प्यासा है.

[पुरुरवा आयु से अलग हो जाता है]

पुरुरवा
चली गई? सब शून्य हो गया? मैं वियुक्त, विरही हूँ?
देवॉ को मेरे निमित्त, बस, इतनी ही ममता थी!
लाओ मेरा धनुष, सजाओ गगन-जयी स्यन्दन को,
सखा नहीं, बन शत्रु स्वर्ग-पुर मुझे आज जाना है.
और दिखाना है, दाहकता किसकी अधिक प्रबल है,
भरत-शाप की या पुरुरवा के प्रचंड बाणॉ की.
कहाँ छिपा रखेंगे सुर मेरी प्रेयसी प्रिया को?
रत्नसानु की कनक-कन्दरा में? तो उस पर्वत को
स्वर्ण-धूलि बन वसुन्धरा पर आज बरस जाना है.
छिन्न-भिन्न होकर मनुष्य के प्रलय-दीप्त बाणॉ से.
दिव के वियल्लोक में छाए विपुल स्वर्ण-मेघॉ में?
तो मेघॉ के अंतराल होकर अरुद्ध शम्पा-सा
दौड़ेगा मेरा विमान कम्पित कर प्राण सुरॉ के;
और उलट कर एक-एक मायामय मेघ-पटल को
खोजूँगा, उर्वशी व्योम के भीतर कहाँ छिपी है.
लाओ मेरा धनुष, यहीं से बाण साध अम्बर में
अभी देवताऑ के वन में आग लगा देता हूँ.
फेंक प्रखर, प्रज्वलित, वह्निमय विशिख दृप्त मघवा को
देता हूँ नैवेद्य मनुजता के विरुद्ध संगर का.
और सिन्धु में कहीं उर्वशी को फिर छिपा दिया हो,
तो साजो विकराल सैन्य, हम आज महासागर को
मथ कर देंगे हिला, सिन्धु फिर पराभूत उगलेगा
वे सारे मणि-रत्न, बने होंगे जो भी उस दिन से,
जब देवॉ-असुरॉ ने इसको पहले-पहल मथा था.
और उसी मंथन क्रम में बैठी तरंग-आसन पर
एक बार फिर पुन: उर्वशी निकलेगी सागर से
बिखराती मोहिनी उषा की प्रभा समस्त भुवन में,
जैसे वह पहले समुद्र के भीतर से निकली थी!
भूल गए देवता, झेल शत्रुता अमित असुरॉ की
कितनी बार उन्हें मैने रण में जय दिलवाई है.
पर, इस बार ध्वंस बनकर जब मैं उन पर टूटूँगा,
आशा है,आप्रलय दाह विशिखॉ का स्मरण रहेगा;
और मान लेंगे यह भी, उर्वशी कहीं जनमी हो,
देवॉ की अप्सरा नहीं, वह मेरी प्राणप्रिया है.
उठो, बजाओ पटह युद्ध के, कह दो पौर जनॉ से,
उनका प्रिय सम्राट स्वर्ग से वैर ठान निकला है;
साथ चलें, जिसको किंचित भी प्राण नहीं प्यारे हों.

महामात्य्
महाराज हॉ शांत; कोप यह अनुचित नहीं, उचित है.
तारा को लेकर पहले भी भीषण समर हुआ था
दो पक्षॉ मे बँटे, परस्पर कुपित सुरॉ-असुरॉ में.
और सुरॉ के, उस रण में भी छक्के छूट गए थे.
वह सब होगा पुन:, यही यदि रहा इष्ट स्वामी का.
पर, यद्यपि, यह समर खड़ा होगा मानवॉ-सुरॉ में,
किंतु दनुज क्या इस अपूर्व अवसर से अलग रहेंगे?
मिल जाएँगे वे अवश्य आकर मनुष्य सेना में.
सुरता के ध्वंसन से बढ़्कर उन्हें और क्या प्रिय है
और टिकेंगे किस बूते पर चरण देवताऑ के
वहाँ, जहाँ नर-असुर साथ मिलकर उनसे जूझ रहे हों?
इस संगर में महाराज! जय तो अपनी निश्चित है;
मात्र सोचना है, देवॉ से वैर ठान लेने पर
पड़ न जाएँ हम कहीं दानवॉ की अपूत संगति में.
नर का भूषण विजय नहीं, केवल चरित्र उज्जवल है
कहती हैं नीतियाँ, जिसे भी विजयी समझ रहे हो,
नापो उसे प्रथम उन सारे प्रकट, गुप्त यत्नॉ से,
विजय-प्राप्ति-क्रम में उसने जिनका उपयोग किया है.

डाल न दे शत्रुता सुरॉ से हमें दनुज-बाँहॉ में,
महाराज! मैं, इसीलिए, देवॉ से घबराता हूँ.

पुरुरवा
कायरता की बात ! तुम्हारे मन को सता रही है
भीति इन्द्र के निथुर व्ज्र की, देवॉ की माया की;
किंतु, उसे तुम छिपा रहे हो सचिव! ओढ़ ऊपर से
मिथ्या वसन दनुज-संगति-कल्पना-जन्य दूषण का.
जब मनुष्य चीखता व्योम का हृदय दरक जाता है
सहम-सहम उठते सुरेन्द्र उसके तप की ज्वाला से.
और कहीं हो क्रुद्ध मनुज कर दे आह्वान प्रलय का,
स्वर्ग, सत्य ही टूट गगन से भू पर आ जाएगा.
क्यॉ लेंगे साहाय्य दनुज का? हम मनुष्य क्या कम हैं?
 
बजे युद्ध का पटह, सिद्ध हो द्रुत योजना समर की
यह अपमान असह्य, इसे सहने से श्रेष्ठ मरण है.

[नेपथ्य से आवाज आती है]

“पीना होगा गरल, वेदना यह सहनी ही होगी.
सावधान! देवॉ से लड़ने में कल्याण नहीं है.
देव कौन हैं? शुद्ध, दग्धमल, श्रेष्ठ रूप मानव के;
तो अपने ही श्रेष्ठ रूप से मानव युद्ध करेगा
या उससे जो रूप अभी दानवी, दुष्ट, मलिन है?”

पुरुरवा
यह किसका स्वर? कौन यवनिकाऑ में छिपा हुआ है?
जो भी होती घटित आज, अचरज की ही घटना है.
बड़ी अनोखी बात! कौन हो तुम जो बोल रहे हो
इतने सूक्ष्म विचार? छिपे हो कहाँ, भूमि या नभ में/

[नेपथ्य से आवाज]

मैं प्रारब्ध चन्द्रकुल का, संचित प्रताप तेरा हूँ
बोल रहा हूँ तेरे ही प्राणॉ के अगम,अतल से.
अनुचित नहीं गर्व क्षणभंगुर वर्तमान की जय का
पर, अपने में डूब कभी यह भी तूने सोचा है,
तेरे वर्तमान मन पर जिनका भविष्य निर्भर है,
अनुत्पन्न उन शत-सहस्र मनुजॉ के मुखमंडल पर
कौन बिम्ब, क्या प्रभा, कौन छाया पड़ती जाती है?

जैसे तूने प्रणय-तूलिका और लौह-विशिखॉ से
ओजस्वी आख्यान आत्मजीवन का आज लिखा है,
वैसे ही कल चन्द्र-वंश वालॉ के विपुल-हृदय में
लौह और वासना समंवित होकर नृत्य करेंगे
अतुल पराक्रम के प्रकाश में भी यह नहीं छिपेगा
ताराहर विधु के विलास से ये मनुष्य जनमें हैं
चिंतन कर यह जान कि तेरे क्षण-क्षण की चिंता से
दूर-दूर तक के भविष्य का मनुज जन्म लेता है
उठा चरण यह सोच कि तेरे पद के निक्षेपॉ की
आगामी युग के कानॉ में ध्वनियाँ पहुंच रही हैं.
और प्रेम! वह बना नहीं क्यॉ अश्रुधार करुणा की,
आराधन उन दिव्य देवता का, जो छिपे हुए हैं
रमणी के लावण्य, रमा-मुख के प्रकाश मंडल में?
बना नहीं क्यॉ वह अखंड आलोक-पुंज जीवन का,
जिसे लिए तू और व्योम में ऊपर उठ सकता था?
अरुण अधर, रक्तिम कपोल, कुसुमाघव घूर्ण दृगॉ में;
आमंत्रण कितना असह्य माया-मनोज्ञ प्रतिमा का!
ग्रीवा से आकटि समंत उद्वेलित शिखा मदन की,
आलोड़ित उज्जवल असीमता-सी सम्पूर्ण त्वचा में;
वक्ष प्रतीप कमल, जिन पर दो मूँगे जड़े हुए हैं;
त्रिवली किसी स्वर्ण-सरसी में उठती हुई लहर-सी
किंतु, नहीं श्लथ हुईं भुजाएँ किन विक्रमी नरॉ की
आलिंगन में इस मरीचिका को समेट रखने में?
पृथुल, निमंत्रण-मधुर, स्निग्ध, परिणत, विविक्त जघनॉ पर
आकर हुआ न ध्वस्त कौन हतविक्रम असृक-स्रवण से?
जिसने भी की प्रीति, वही अपने विदीर्ण प्राणॉ में
लिए चल रहा व्रण, शोणितमय तिलक प्रेम के कर का;
और चोट जिसकी जितनी ही अधिक, घाव गहरा है,
वह उतना ही कम अधीर है व्यथा-मुक्ति पाने को.
नारी के भीतर असीम जो एक और नारी है,
सोचा है उसकी रक्षा पुरुषों में कौन करेगा?
वह, जो केवल पुरुष नहीं, है किंचित अधिक पुरुष से;
उर में जिसके सलिल-धार, निश्चल महीद्र प्राणॉ में,
कलियॉ की उँगलियाँ, मुट्ठियाँ हैं जिसकी पत्थर की.
कह सकता है पुरू! कि तू पुरुषाधिक यही पुरुष है?
तो फिर भीतर देख, शिलोच्चय शिखर-शैल मानस का
अचल खड़ा है या प्रवाल-ताडन से डोल रहा है?
यह भी देख, भुजा कुसुमॉ का दाम कि वज्र-शिला है?
हाथॉ में फूल ही फूल हैं या कुछ चिंगारी भी?
विपद्व्याधिनी भी जीवन में तुझको कहीं मिली थी?
पूछा जब तूने भविष्य, उसने क्या बतलाया था?
त्रिया! हाय छलना मनोज्ञ वह! पुरुष मग्न हँसता है,
जब चाहिये उसे रो उठना कंठ फाड़, चिल्ला कर.
पूछ रहा क्या भाग्य ज्योतिषी से, अंकविद, गणक से?
हृदय चीर कर देख प्राण की कुंजी वही पड़ी है.
अंतर्मन को जगा पूछ, वह जो संकेत करेगा,
तुझे मिलेगी मन:शांति उपवेशित उसी दिशा में.

बिना चुकाए मूल्य जगत में किसने सुख भोगा है?
तुझ पर भी है पुरू! शेष जो ऋण अपार जीवन का
भाग नहीं सकता तू उसको किसी प्रकार पचाकर.
नहीं देखता, कौन तरेरे नयन समक्ष खड़ा है?
पुरुरवा! यह और नहीं कोई, तेरा जीवन है.
जो कुछ तूने किया प्राप्त अब तक इसके हाथॉ से,
देना होगा मूल्य आज गिन-गिन उन सभी क्षणॉ का.
पर, कैसे? जा स्वर्ग उर्वशी को फिर ले आएगा?
अथवा अपने महाप्रेम के बलशाली पंखॉ पर
चढ़ असीम उड्डयन भरेगा मन के महागगन में,
जहाँ त्रिया कामिनी नहीं, छाया है परम विभा की,
जहाँ प्रेम कामना नहीं, प्रार्थना निदिध्यासन है?
खोज रहा अवलम्ब? किंतु, बाहर इस ज्वलित द्विधा का
कोई उत्तर नहीं. पुन: मैं वही बात कहता हूँ,
हृदय चीर कर देख, वहीं पर कुंजी कहीं पड़ी है.