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पंचम अंक / भाग 2 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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महामात्य
महाश्चर्य!

एक सभासद
विस्मय अपार!

दूसरा सभासद
यह स्वप्न या कि कविता है
उज्जवलता में रमें, रूप-ध्यायी, रस-मग्न हृदय की?
और उड्डयन तो नैतिक उन्नति की ही महिमा है.
जो हो, मैं मंगल की शुभ सूचना इसे कहता हूँ

तीसरा सभासद
शांति! ज्योतिषी विश्वमना गणना में लगे हुए हैं.
सुनें, सिद्ध दैवज्ञ स्वप्न का फल क्या बतलाते हैं.

विश्वमना
हाय, इसी दिन के निमित्त मैं जीवित बचा हुआ था?
महाराज! यदि कहूँ सत्य तो गिरा व्यर्थ होती है.
मृषा कहूँ तो क्यॉ अब तक आदर पाता आया हूँ?
मुझ विमूढ़ को अत: देव मौन ही आज रहने दें;
क्यॉकि दीखता है जो कुछ, उसका आधार नहीं है.

पुरुरवा
किसका है आधार लुप्त? क्या है परिणाम गणित का?
यह प्रहेलिका और अधिक उत्कंठा उपजाती है.
कहें आप संकोच छोड़ कर, जो कुछ भी कहना हो,
गणित मृषा हो भले, आपको मिथ्या कौन कहेगा?

विश्वमना
वरुण करें कल्याण! देव! तब सुनें, सत्य कहता हूँ.
अमिट प्रवज्या-योग केन्द्र-गृह में जो पड़ा हुआ है,
वह आज ही सफल होगा, इसलिए की प्राण-दशा में
शनि ने किया प्रवेश, सूक्ष्म में मंगल पड़े हुए हैं.
अन्य योग जो हैं, उनके अनुसार, आज सन्ध्या तक
आप प्रव्रजित हो जाएंगे अपने वीर तनय को
राज-पाट, धन-धाम सौंप, अपना किरीट पहना कर.
पर विस्मय की बात! पुत्र वह अभी कहाँ जनमा है?
अच्छा है, पुत जाए कालिमा ही मेरे आनन पर;
लोग कहें, मर गई जीर्ण हो विद्या विश्वमना की.
इस अनभ्र आपद् से तो अपकीर्ति कहीं सुखकर है.

उर्वशी
आह! क्रूर अभिशाप! तुम्हारी ज्वाला बड़ी प्रबल है.
अरी! जली, मैं जली, अपाले! और तनिक पानी दे.
महाराज! मुझ हतभागी का कोई दोष नहीं है.

(पानी पीती है. दाह अनुभूत होने का भाव)

पुरुरवा
किसका शाप? कहाँ की ज्वाला? कौन दोष? कल्याणी!
आप खिन्न हो निज को हतभागी क्यॉ कहती हैं?
कितना था आनन्द गन्धमादन के विजन विपिन में
छूट गई यदि पुरी, संग होकर हम वहीं चलेंगे.
आप, न जानें, किस चिंता से चूर हुई जाती हैं!
कभी आपको छोड़ देह यह जीवित रह सकती है?

[प्रतीहारी का प्रवेश]

प्रतीहारी
जय हो महाराज! वन से तापसी एक आई हैं;
कहती हैं, स्वामिनी उर्वशी से उनको मिलना है!
नाम सुकन्या; एक ब्रह्मचारी भी साथ लगा है.

पुरुरवा
सती सुकन्या! कीर्तिमयी भामिनी महर्षि च्यवन की?
सादर लाओ उन्हें; स्वप्न अब फलित हुआ लगता है.
पुण्योदय के बिना संत कब मिलते हैं राजा को?

[सुकन्या और आयु का प्रवेश]

पुरुरवा
इलापुत्र मैं पुरु पदों में नमस्कार करता हूँ.
देवि! तपस्या तो महर्षिसत्तम की वर्धमती है?
आश्रम-वास अविघ्न, कुशल तो है अरण्य-गुरुकुल में?

सुकन्या
जय हो, सब है कुशल.
उर्वशी! आज अचानक ऋषि ने
कहा, “आयु को पितृ-गेह आज ही गमन करना है!
अत:, आज ही, दिन रहते-रहते, पहुंचाना होगा,
जैसे भी हो, इस कुमार को निकट पिता-माता के”.
सो, ले आई, अकस्मात ही, इसे; सुयोग नहीं था
पूर्व-सूचना का या इसको और रोक रखने का.
सोलह वर्ष पूर्व तुमने जो न्यास मुझे सौपा था,
उसे आज सक्षेम सखी! तुम को मैं लौटाती हूँ.
बेटा! करो प्रणाम, यही हैं माँ, वे देव पिता हैं.

[आयु पहले उर्वशी को, फिर पुरुरवा को प्रणाम करता है. पुरुरवा उसे छाती से लगा लेता है.]

पुरुरवा
महाश्चर्य! अघट घटना! अद्भुत अपूर्व लीला है!
यह सब सत्य-यथार्थ या कि फिर सपना देख रहा हूँ?
पुत्र! देवि! मैं पुत्रवान हूँ? यह अपत्य मेरा है?
जनम चुका है मेरा भी त्राता पुं नाम नरक से?
अकस्मात हो उथा उदित यह संचित पुण्य कहाँ का?
अमृत-अभ्र कैसे अनभ्र ही मुझ पर बरस पड़ा है?
पुत्र! अरे मैं पुत्रवान हूँ, घोषित करो नगर में,
जो हो जहाँ, वहीं से मेरे निकट उसे आने दो.
द्वार खोल दो कोष-भवन का, कह दो पौर जनों से
जितना भी चाहें, सुवर्ण आकर ले जा सकते हैं

ऐल वंश के महामंच पर नया सूर्य निकला है;
पुत्र-प्राप्ति का लग्न, आज अनुपम, अबाध उत्सव है.
पुत्र! अरे कोई संभाल रखो मेरी संज्ञा को,
न तो हर्ष से अभी विकल-विक्षिप्त हुआ जाता हूँ.
पुत्र! अरे, ओ अमृत-स्पर्श! आनन्द-कन्द नयनॉ के!
प्राणॉ के आलोक! हाय! तुम अब तक छिपे कहाँ थे?
ऐल वंश का दीप, देवि! यह कब उत्पन्न हुआ था?
और आपने छिपा रखा इसको क्यों निष्ठुरता से?
हाय! भोगने से मेरा कितना सुख छूट गया है!

उर्वशी
अब से सोलह वर्ष पूर्व, पुत्रेष्टि-यज्ञ पावन में
देव! आप यज्ञिय विशिष्ट जीवन जब बिता रहे थे,
च्यवनाश्रम की तपोभूमि में तभी आयु जनमा था
मुझमें स्थापित महाराज के तेजपुंज पावक से
किंतु, छिपा क्यॉ रखा पुत्र का मुख पुत्रेच्छु पिता से,
आह! समय अब नहीं देव! वह सब रहस्य कहने का.
लगता है, कोई प्राणॉ को बेध लौह अंकुश से,
बरबस मुझे खींच इस जग से दूर लिए जाता है.

पुरुरवा
अच्छा, जो है गुप्त, गुप्त ही उसे अभी रहने दें.
आतुरता क्या हो रहस्य के उद्घाटित करने की,
जब रहस्य वपुमान सामने ही साकार खड़ा हो?
सभासदॉ! कल रात स्वप्न में इसी वीर-पुंगव को
प्रत्यंचा माँजते हुए मैने वन में देखा था.
और बढ़ा ज्यॉ ही उदग्र मैं इसे अंक भरने को,
यही दुष्ट छल मुझे कहीं कुंजॉ मे समा गया था.
किंतु, लाल! अब आलिंगन से कैसे भाग सकोगे?
यह प्रसुप्त का नहीं, जगे का सुदृढ़ बाहु-बन्धन है?

आयु
आयु तक रहा वियुक्त अंक से, यही क्लेश क्या कम है?
तात! आपकी छन्ह छोड़ मैं किस निमित्त भागूँगा?
जब से पाया जन्म, उपोषण रहा धर्म प्राणॉ का;
हृदय भूख से विकल, पिता! मैं बहुत-बहुत प्यासा हूँ,
यद्यपि सारी आयु तापसी माँ का प्यार पिया है.