पद 127 से 128 तक
 (127)
मैं जानी, हरिपद-रति नाहीं। 
सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं।1। 
जै रघुबीर चरन अनरागे। 
तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे।2। 
काम-भुजंग डसत जब जाही।
 बिषय-नींब कटु लगत न ताही।3। 
असमंजस अस हृदय बिचारी। 
बढ़त सोच नित नूतन भारी।4। 
जब कब राम-कृपा दुख  जाई। 
तुलसिदास नहिं आन उपाई।5।
(128)
 
सुमिरू सनेह-सहित सीतापति। 
रामचरन तजि नहिंन आनि गति।1। 
जप, तप, तीरथ, जोग समाधी। 
कलिमति बिकल, न कछु निरूपाधी।2। 
करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं। 
रकतबीत जिमि बाढ़त जाहीं।3। 
हरति एक अघ-असुर-जालिका। 
तुलसिदास प्रभु-कृपा -कालिका।4।