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पद 121 से 130 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4
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पद 127 से 128 तक
(127)
मैं जानी, हरिपद-रति नाहीं।
सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं।1।
जै रघुबीर चरन अनरागे।
तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे।2।
काम-भुजंग डसत जब जाही।
बिषय-नींब कटु लगत न ताही।3।
असमंजस अस हृदय बिचारी।
बढ़त सोच नित नूतन भारी।4।
जब कब राम-कृपा दुख जाई।
तुलसिदास नहिं आन उपाई।5।
(128)
सुमिरू सनेह-सहित सीतापति।
रामचरन तजि नहिंन आनि गति।1।
जप, तप, तीरथ, जोग समाधी।
कलिमति बिकल, न कछु निरूपाधी।2।
करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं।
रकतबीत जिमि बाढ़त जाहीं।3।
हरति एक अघ-असुर-जालिका।
तुलसिदास प्रभु-कृपा -कालिका।4।