विनयावली / तुलसीदास / पद 121 से 130 तक / पृष्ठ 5
पद संख्या 129 तथा 130
(129)
रूचिर रसना तू राम राम राम क्यों न रटत।
सुमिरत सुख-सुकृत बढ़त, अघ अमंगल घटत।1।
बिनु श्रम कलि-कलुषजाल कटु कराल कटत।
दिनकरके उदय जैसे तिमिर-तोम फटत।2।
जोग, जाग, जप, बिराग, तप, सुतीरथ-अटत।
बाँधिबेको भव-गयंद रेनुकी रज बटत।3।
परिहरि सुर-मनि-सुनाम, गुंजा लखि लटत।
लालच लघु तेरो लखि, तुलसी तोहिं हटत।4।
(130)
राम राम , राम राम, राम राम, जपत।
मंगल-मुद उदित होत, कलि-मल-छल-छपत।1।
कहु के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत।
हारहि जनि जनम जाय गाल गूल गपत।2।
काल, करम, गुन , सुभाउ सबके सीस तपत।
राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत।3।
साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत।
कलिजुग बर बनिज बिपुल , नाम-नगर खपत।4।
नाम सेां प्रतीति-प्रीति हृदय सुथिर थपत।
पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत।5।