पद (136-2) से (136-3) तक
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(136-2)
आनंद -सिंधु-मध्य तव बासा।
बिनु जाने कस मरसि पियासा। ।
मृग-भ्रम-बारि सत्य जिय जानी।
तहँ तू मगन भयो सुख मानी।।
तहँ मगन मज्जसि, पान करि, त्रयकाल जल नाहीं जहाँ।
निज सहज अनुभव रूप तव खल! भूलि अब आयो तहाँ।
निरमल, निरंजन, निरबिकार, उदार सुख तैं परिहर्यो।
निःकाज राज बिहाय नृप इव सपन कारागृह पर्यो।।
(136-3)
तैं निज करम-डोरि दृढ़ कीन्हीं।
अपने करनि गाँठि गहि दीन्हीं।।
ताते परबस पर्यो अभागे ।
ता फल गरभ- बास -दुख आगे।।
आगे अनेक समूह-संसृत उदरगत जान्यो सोऊ।
सिर हेठ, ऊपर चरन, संकट बात नहिं पूछै कोऊ।
सोनित-पुरीष जो मूत्र-मल कृमि-कर्दमावृत सोवई।
कोमल सरीर- गँभीर बेदन, सीस धुनि-धुनि रोवई।।