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विनयावली / तुलसीदास / पद 131 से 140 तक / पृष्ठ 9

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पद (136-9) से (136-10) तक

(136-9)
कहि को सकै महाभव तेरे।
जनम एकके कछुक गनेरे।

चारि खानि संतत अवगाहीं।
अजहुँ न करू बिचार मन माहीं।।

अजहुँ बिचारू, बिकार तजि, भजु राम जन-सुखदायकं।
भवसिंधु दुस्तर जलरथ , भजु चक्रधर सुरनायकं।

बिनु हेतु करूनाकर, उदार, अपार-माया-तारनं।
कैवल्य-पति, जगपति, रमापति, प्रानपति, गतिकारनं।।

(136-10)
रघुपति-भगति सुलभ, सुखकारी।
सो त्रयताप-सोक-भय-हारी।।

बिनु सतसंग भगति नहिं होई।
ते तब मिलैं द्रवै जब सोई।।

जब द्रवै दीनदयालु राधव, साधु-संगति पाइये।
जेहि दरस-परस-समागमादि पापरासि नसाइये।।

जिनके मिले दुख-सुख समान, अमानतादि गुन भये।
मद मोह लोभ बिषाद क्रोध सुबोधत सहजहिं गये।