भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पद 161 से 170 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 5

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पद संख्या 169 तथा 170

(169)
जो मोहि राम लगाते मीठे।
तौ नवरस षटरस-रस अनरस ह्वै जाते सब सीठे।1।

बंचक बिषय बिबिध तनु धरि अनुभवे सुने अरू डीठे।
यह जानत हौं हृदय आपने सपने न अघाइ उबीठे।2।

तुलसिदास प्रभु सों एकहिं बल बचन कहत अति ढीठे।
नामकी लाज राम करूनाकर केहि न दिये कर चीठे।3।
 
(170)
यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो।
ज्यों छल छाँडि ़ सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो।1।

ज्यों चितई परनारि, सुने पाचक-प्रपंच घर-घरके।
त्यों नासा सुगंधरस-बस , रसना षटरस-रति मानी। 3।

राम-प्रसाद-माल जूठन लगि त्यों चह पाँवर परस्यो।
 त्यों रघुपति -पद-पदुम-परस को तनु पातकी न तरस्यो।4।

 ज्यों सब भाँति कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ।
त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ।5।

चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार-द्वार जग बागे।
राम-सीय-आस्त्रमनि चलत त्यों भूये न स्त्रमित अभागे।6।

 सकल अंग पद-बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है।
है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु-मूरति कृपमई है।7।