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पद 161 से 170 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4

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पद संख्या 167 तथा 168

(167)
रघुपति -भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार , जानै सोइ जेहि बनि आई।1।
जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल-प्रवाह सरसरी बहै गज भारी।2।

ज्यों सर्करा मिलै सिकता महँ, बलतें न कोउ बिलगावै।
 अति रसग्य सूच्छम पीपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै।3।

 सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवै निद्रा तजि जोगी।
 सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख , अतिसय द्वैत-बियोगी।4।

 सोक मोह भय हरष दिवस निसि देस काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीं।5।

(168)
जो पै राम-चरन -रति होती।
 तौ कत त्रिबिध सूल निसिबासर सहते बिपति निसोती। 1।

जो संतोष -सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुँ न पावै।
तौ कत बिषय बिलोकि झूँठ जल मन -कुरंग ज्यों धावै।2।

जो श्रीपति-महिमा बिचारि उर भजते भाव बढ़ाये ।
तौ कत द्वार -द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए।3।


जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे।
प्रभु -बिस्वास आस जीती जिन्ह, ते सेवक हरि केरे।4।

नहिं एकौ आचरन भजनको , बिनय करत हौं ताते।
 कीजै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते।5।