पद 161 से 170 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 3
पद संख्या 165 तथा 166
(165)
रघुबर! रावरि यहै बड़ाई।
निदरि गनी आदर गरीबपर , करत कृपा अधिकाई।1।
थके देव साधन करि सब सपनेहु नहिं देत दिखाई।
केवट कुटिल भालु कपि कौनप, कियो सकल सँग भाई।2।
मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक वन, सो चरचौ न चलाई।
बारहि बार गीध सबरीकी बरनत प्रीति सुहाई।3।
स्वान कहे तें कियो पुर बाहिर , जती गयंद चढ़ाई।
तिय -निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नय नगर बसाई।4।
यहि दरबार दीनको आदर, रीति सदा चलि आई।
दीनदयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरति कराई।5।
(166)
ऐसे राम दीन हितकारी।
अतिकोमल करूनानिधान बिनु कारन पर-उपकारी।1।
साधन-हीन दीन निज अघ-बस, सिला भई मुनि -नारी।
गृहतें गवनि परसि पद पावन घोर सापतें तारी।2।
हिंसारत निषाद तामस बपु, पसु-समान बनचारी।
भेंट्यो हृदय लगाइ प्रेमबस, नहिं कुल जाति बिचारी।3।
जद्यपि द्रोह कियो सुरपति-सुत, कहि न जाय अति भारी।
सकल लोक अवलोकि , सोकहत, सरन गये भय टारी।4।
बिहँग जोनि आमिष अहार पर, गीध कौन ब्रतधारी।
जनक-समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति सँवारी।5।
अधम जाति सबरी जोतिष जड़, लोक -बेद तंे न्यारी।
जानि प्रीति , दै दरस कृपानिधि, सोउ रघुनाथ उधारी।6।
कपि सुग्रीव बंधु -भय-ब्याकुल आयो सरन पुकारी।
सहि न सके दारून दुख जनके, हत्यो बालि , सहि गारी।7।
रिपुको अनुज बिभीषन निशिचर, कौन भजन अधिकारी।
सरन गये आये ह्वै लीन्हों भेट्यो भुजा पसारी।8।
असुभ होइ जिन्हके सुमिरे ते बानर रीछ बिकारी।
बेद-बिदित पावन किये ते सब, महिमा नाथ! तुम्हारी।9।
कहँ लगि कहौं दीन अगनित जिन्हकी तुम बिपति निवारी।
कलिमाल -ग्रसित दास तुलसीपर , काहे कृपा बिसारी?।10।