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पद 161 से 170 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

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पद संख्या 163 तथा 164

(163)

एकै दानि-सिरोमनि साँचो।
जोइ जाच्यो सोइ जातकबस, फिरि बहु नाच न नाचो।1।

सब स्वारथी असुर सुर नर मुनि कोउ न देत बिनु पाये।
कोसलपालु कृपालु कलपतरू, द्रवत सकृत सिर नाये।2।

हरिहु और अवतार आपने , राखी बेद-बड़ाई।
लै चिउरा निधि दई सुदामहिं, जद्य िपबाल मिताई।3।

कपि सबरी सुग्रीव बिभीषन, को नहिं कियो अजाची।
अब तुलसिहि दुख देति दयानिधि दारून आस-पिसाची।4।

(164)

जनम प्रीति -रीति रघुराई।
नाते सब हाते करि राखत राम सनेह-सगाई।1।

नेह निबाहि देत तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई।
ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरूआई।2।

तिय -बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रान पिया बिसराई।
रप पर्यो बंधु बिभ्ज्ञीषन ही को , सोच हृदय अधिकाई।3।

 घर गुरूगृह प्रिय -सदन सासुरे, भइ जब जहँ पहुनाई।
तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रूचि माधुरी न पाई।4।

सहज सरूप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई।5।

प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुुवन तिहुँकाल न भाई।
तेरो रिनी हौं कह्यो कपि सो ऐसी मानिहिं को सेवकाई।6।

तुलसी राम-सनेह -सील लखि, जो न भगति उर आई।
 तौ तोहिं जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरूनता गवाँई।।