पद 161 से 170 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1
पद संख्या 161 तथा 162
(161)
श्री तो सों प्रभु जो पै कहूँ कोउ होतो।
तो सहि निपट निरादर निसदिन, रटि लटि ऐसो घटि को तो।
कृपा-सुधा-जलदान माँगियो कहौं से साँच निसोतो।
स्वाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सेा पोतो।
काल-करम-बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो।
ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो।।
जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो।
तेरे राज राय दशरथ के, लयो बयो बिनु जोतो।।
(162)
ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं।1।
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी।2।
जो संपति दस सीस अरप रावन सिव पहँ लीन्हीं।
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्हीं।3।
तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करैं कृपानिधि तेरो।4।