पद 181 से 190 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4
पद संख्या 187 तथा 188
(187)
ताहि तें आयो सरन सबेरें।
ग्यान बिराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरे।1।
लोभ-मोह-मद -काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन घेरें।
तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें।2।
दोष -निलय यह बिषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति टेरें।
जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरे?।3।
बिष पियुष सम सरहु अगिनि हिम, तारि सकहु बिनु बेरें।
तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाइहौं हेरें।।4।
यह जिय जानि रहौं सब तजि रघुबीर भरोसें तेरे।
तुलसिदास यह बिपति -बागुरौ तुम्हहि सों बनै निबेरें।5।
(188)
मैं तोहिं अब जान्यो संसार।
बाँधि न सकहिं मोहि हरिके बल, प्रगट कपट-आगार।1।
देखत ही कमनीय , कछू नाहिंन पुनि किये बिचार।
ज्यों कदलीतरू-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार।2।
तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायों पार।
महामोह-मृगजल-सरिता महँ बोर्यो हौं बारहिं बार।3।
सुनु खल! छल-बल कोटि किये बस होहिं न भगत उदार।
सहित सहाय तहाँ बसि अब , जेहि हृदय न नंदकुमार। 4।
तासों करहु चातुरी जो नहिं जानै मरम तुम्हार।
सो परि डरै मरै रजु-अहि तें, बूझै नहिं ब्यवहार।5।
निज हित सुनु सठ! हठ न करहि जो चहहि कुसल परिवार।
तुलसिदास प्रभुके दासनि तजि भजहि जहाँ मद मार।6।