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पद 191 से 200 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 5

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पद संख्या 199 तथा 200

 (199)
 
काहे को फिरत मूढ़ मन धायो।
तजि हरि-चरन-सरोज सुधारस, रबिकर-जल लय लायो।1।

त्रिजग देव नर असुर अपर जग जोनि सकल भ्रमि आयो।
  गृह बनिता , सुत , बंधु भये बहु, मातु-पिता जिन्ह जायो।2।

जाते निरय-निकाय निरंतर , सोइ इन्ह तोहि सिखायो।
तुव हित होइ , कटै भव-बंधन, सो मगु तोहि न बतायो।3।

अजहुँ बिषय कहँ जतन करत, जद्यपि बहुबिधि डहँकायो।
पावक-काम भोग-घृत तेें सठ, कैसे परत बुझायो।4।
 बिषय हीन दुख, मिले बिपति अति , सुख सपनेहुँ नहिं पायो।
उभय प्रकार प्रेत-पावक ज्यों दुखप्रद श्रुति गायो।5।

 छिन-छिन छीन होत जीवन , दुरलभ तनु बृथा गँवायो।
तुलसिदास हरि भजहिं आस तजि, काल-उरग जग खायो।6।

(200)

ताँबे सो पीठि मनहुँ तन पायो।
नीच, मीच जानत न सीस पर, ईस निपट बिसरायों।1।

अवनि-रवनि, धन-धाम, सुहृद-सुत , को न इन्हहिं अपनायो?
काके भये, गये सँग काके, सब सनेह छल-छायो।2।

 जिन्ह भूपनि जग-जीति , बाँधि जम, अपनी बाँह बयायो।
 तेऊ काल कलेऊ कीन्हे, तू गिनती कब आयेा।3।

देखु बिचारि , सार का साँचो, कह निगम निजु गायेा।
भजहिं न अजहुँ समुझि तुलसी तेहि, जेहि महेस मन लायो।4।