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पद 191 से 200 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4

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पद संख्या 197 तथा 198

  (197)
 
नाहिंन चरन-रति ताहि तें सहौं बिपति,
कहत श्रुति सकल मुनि मतिधीर।
 बसै जो ससि -उछंग सुधा-स्वादित कुरंग।
ताहि क्यों भ्रम निरखि रबिकर-नीर।1।

सुनिय नाना पुरान, मिटत नाहिं अग्यान,
 पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर।
 बँधत बिनहिं पास सेसर-सुमन-आस,
करत चरत तेइ फल बिनु हीर।2।

कछु न साधन -सिधि , जानौं न निगम -बिधि,
 नहिं जप-तप , बस मन, न समीर।
तुलसिदास भरोस परम करूना -कोस,
प्रभु हरिहैं बिषम भवभीर।3।

(198)

मन पछितैहै अवसर बीतें ।
 दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरू ही तें। 1।

 सहसबाहु दसबदन आदि नृप बचे न काल बलीते।
हम-हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते।2।

 सुत-बनितादि जानि स्वारथरत , न करू नेह सबही ते।
अंतहु तोहिं तजैंगे पामर! त्ूा न तजै अबही ते।3।

 अब नाथहिं अनुरागु , जागु जड़ , त्यागु दुरासा जी ते।
 बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ , बिषय -भोग बहु घी ते।4।