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पद 201 से 210 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4

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पद संख्या 207 तथा 208

 (207)

भजिबे लायक, सुखदायक रघुनायक सरिस सरनप्रद दूजो नाहिन।
आनँदभवन, दुखदवन, सोकसमन रमारमन , गुन गनत सिराहिं न ।1।

आरत, अधम, कुजाति, कुटिल , खल, पतित, सभीत कहूँ जे समाहिं न।
सुमिरत नाम बिबसहूँ बारक पावत सो पद, जहाँ सुर जाहिं न ।2।

जाके पद-कमल लुब्ध मुनि-मधुकर, बिरत जे परम सुगतिहु लुभाहिं न।
तुलसिदास सठ तेहि सठ तेहि न भजसि कस, कारूनीक जो अनाथहिं दाहिन।3।

(208)

नाथ सों कौन बिनती कहि सुनावौं ।
त्रिबिध बिधि अमित अवलोकिअघ आपने,
सनमुख होत सकुचि सिर नावौं।1।

बिरचि हरिभगतिको बेष बर-टाटिका।
 कपट-दल हरित पल्लवनि छावौं।
नामलगि लाइ लासा ललित-बचन कहि,
ब्याध ज्यों बिषय-बिहँगनि बझावौं।2।

कुटिल सतकोटि मेरे रोमपर वारियहि,
साधु गनतीमें पहलेहि गनावौं।
परम बर्बर खर्ब गर्ब-पर्बत चढ्यो,
अग्य सर्बग्य , जन-मनि जनावौं।3।

 साँच किधौं झूठ मोको कहत कोउ-,
 कोउ राम! रावरो, हौं तुम्हरो कहावौं।
 बिरदकी लाज करि दास तुलसिहिं देव!
लेहु अपनाइ अब देहु जनि बावौं।4।