पद 201 से 210 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 5
पद संख्या 209 तथा 210
(209)
नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी।
करम-मन-बचन पन सत्य करूनानिधे!
एक गति राम! भवदीय पदत्रानकी।1।
कोह-मद-मोह -ममतायतन जानि मन,
बात नहिं जाति कहि ग्यान- बिग्यानकी।
काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहिं,
आस नहिं एकहू आँक निरबान की।2।
बेद-बोधित करम धरम बिनु अगम अति,
जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी।
सिद्ध-सुर-मनुज दनुजादिसेवत कठिन,
द्रवहिं हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी।3।
भगति दुरलभ परम , संभु -सुक-मुनि-मधुप,
प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी।ं
पतित-पावन सुनत नाम-बिस्त्रामकृत,
भ्रमित पुनि समुझि चित ग्रंथि अभिमानकी।4।
नरक -अधिकार मम घोर संसार-तम ,
कूपकहिं,भूप ! मोहि सक्ति आपानकी।
दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन,
सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी।5।
(210)
औरू कहँ ठौरू रघुबंस-मनि! मेरे।
पतित-पावन , प्रनत-पाल, असरन-सरन,
बाँकुरे बिरूद बियदैत केहि केरे।1।
समुझि जिय जोस अति रोस करि राम जो,
करत नहिं कान बिनती , बदन फेरे।
तदपि ह्वै निडर हौं कहौं करूना-सिंधु ,
क्योंऽब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे।2।
मुख्य रूचि होत बसिबेकी पुर रावरे,
राम! तेहि रूचिहि कामादि गन घेरे।
अगम अपबरग, अरू सरग सुकृतैकफल,
नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे।3।
कतहुँ नहिं ठाउँ, कहँ जाउँ कोसलनाथ!
छीन बितहीन हौं, बिकल बिनु डेरे।
दास तुलसिहिं बास देहु अब करि कृपा ,
बसत गज गीध ब्याधादि जेहि खेरे।4।