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पद 211 से 220 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 5

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पद संख्या 219 तथा 220

 (219)
 
द्वार हौं भोर ही को आजु।
 रटत रिरिहा आरि और न , कौर ही तें काजु।1।

कलि कराल दुकाल दारून, सब कुभाँति कुसाजु।
 नीच जन, मन ऊँच, जैसी कोढ़मेंकी खाजु।2।

हहरि हियमें सदस बूझ्यो जाइ साधु-समाजु।
 मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, तिन्ह कह्यो कोसलराजु।3।

दीनता-दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु।
दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु।4।

जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु।
पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति-सुधा सुनाजु।5।

(220)

करिय सँभार, कोसलराय!
और ठौर न और गति, अवलंब नाम बिहाय।1।

बूझि अपनी आपनो हितु आप बाप न माय।
राम! राउर नाम गुर, सुर, स्वामि, सखा, सहाय।2।

 रामराज न चले मानस-मलिनके छल छाय।
 कोप तेहि कलिकाल कायर मुएहि घालत घाय।3।

लेत केहरिको बयर ज्यों भेक हनि गोमाय।
त्योंहि राम-गुलाम जानि निकाम देत कुदाय।4।

अकनि याके कपट-करतब , अमित अनय-अपाय।
सुखी हरिपुर बसत होत परीछितहि पछिताय।5।

कृपासिंधु! बिलोकिये ,जन-मनकी साँसति साय।
सरन आयो, देव! दीनदयालु! देखन पाय।6।

 निकट बोलि न बरजिये, बलि जाउँ , हनिय न हाय।
देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनिके न्याय।7।

अरून मुख , भ्रू बिकट, पिंगल नयन रोष-कषाय।
बीर सुमिरि समीरको घटिहै चपल चित चाय।8।

 बिनय सुनि बिहँसे अनुजसों बचनके कहि भाय।
‘भली कही’ कह्यो लषन हूँ हँसि , बने सकल बनाय।9।

दई दीनहिं दादि, सो सुनि सृजन -सदन बधाय।
 मिटे संकट-सोच, पोच-प्रपंच , पाप-निकाय।10।

 पेखि प्रीति-प्रतीति जनपर अगुन अनघ अमाय।
दासतुलसी कहत मुनिगन,‘ जयति जय उरूगाय’।11।