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पद 211 से 220 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4

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पद संख्या 217 तथा 218

 (217)

जो पै दुसरो कोउ होइ।
तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोइ।1।

काहि ममता दीन पर , काको पतितपावन नाम।
 पापमूल अजामिलहि केहि दियो अपनो धाम।2।

रहे संभु बिरंचि सुरपति लोकपाल अनेक।
 सोक-सरि बूड़त करीसहि दई काहुु न टेक।3।

बिपुल-भूपति -सदसि महँ नर-नारि कह्यो ‘प्रभु पाहि’।
सकल समरथ रहे, काहु न बसन दीन्हों ताहि। 4।

 एक मुख क्यों कहौं करूनासिंधुके गुन-गाथ?
 भक्तहित धरि देह काह न कियो कोसलनाथ।5।

आपसे कहुँ सौंपिये मोहि जो पै अतिहि घिनात।
दासतुलसी और बिधि क्यों चरन परिहरि जात।6।

(218)

कबहिं देखाइहौं हरि चरन।
समन सकल कलेस कलि-मल, सकल मंगल-करन।1।

 सरद-भव सुंदर तरूनतर अरून-बारिज-बरन।
लच्छि -लालित-ललित करतल छबि अनूपम धरन।2।

गंग-जनक , अनंग-अरि -प्रिय कपट-बटु बलि-छरन।
 बिप्रतिय नृग बधिकके दुख -दोस दारून दरन।3।

 सिद्ध-सुर-मुनि-बृंद-बंदित सुखद सब कहँ सरन।
 सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन-तरन।4।

कृपासिंधु सुजान रघुबर प्रनत-आरति -हरन।
दरस-आस -पिपास तुलसिदास चाहत मरन।5।