भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पद 211 से 220 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 3

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पद संख्या 215 तथा 216

 (215)

श्री रघुबीरकी यह बानि।
नीचहू सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि।1।

परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकी कानि?
लियो सो उर लाइ सुत ज्यों प्रेमको पहिचानि।2।
 
गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिंसा सानि?
जनक ज्यों रघुनाथ ताकहँ दिया ेजल निज पानि।3।
 
प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि।
खात ताके दिये फल अति रूचि बखानि।4।

रजनिचर अरू रिपु बिभीषन सरन आयो जानि।
भरत ज्यों उठि ताहि भेंटत देह-दसा भुलानि।5।

कौन सुभगा सुसील बानर, जिनहिं सुमिरत हानि।
किये ते सब सखा,पूजे भवन बपने आनि।6।
 
राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि।
भजहि ऐसे प्रभुहि तुलसिदास कुटिल कपट न ठानि।7।

(216)
 
हरि तजि ओर भजिये काहि?
नाहिनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि।1।

कनककसिपु बिरंचिको जन करम , मन अरू बात।
सुतहिं दुखवत बिधि न बरज्यो कालके घर जात। 2।

 संभु -सेवक जान जग, बहु बार दिये दस सीस।
करत राम-बिरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस।3।

और देवनकी कहा कहौं, स्वारथहिके मीत।
कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत।4।

को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति।
दास तुलसी दीनपर एक राम ही की प्रीति।5।