पद 221 से 230 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1
पद संख्या 221 तथा 222
(221)
नाथ! कृपाही को पंथ चितवत दीन हौं दिनराति।
होइ धौं केहि काल दीनदयालु! जानि न जाति।1।
सगुन, ग्यान -बिराग-भगति, सु-साधननि की पाँति।
भजे बिकल बिलोकि कलि अघ-अवगुननिकी थाति।2।
अनि अनीति-कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति।
जाउँ कहँ? बलि जाउँ, कहूँ न ठाँउ, माति अकुलाति।3।
आप सहित न आपनो कोउ, बाप! कठिन सुभाँति।
स्यामधन! सींचिये तुलसी, सालि सफल सुखाति।4।
(222)
बलि जाउँ, और कासों कहौं?
सदगुनसिंधु स्वामि सेवक-हित कहुँ न कृपानिधि-सो लहौं।1।
जहँ तहँ लोभ लोल लालचबस निजहित चित चाहनि चहौं।
तहँ तहँ तरनि तकत उलूक ज्यों भटकि कुतरू-कोटर गहौं।2।
काल सुभाउ करम बिचित्र फलदायक सुनि सिर धुनि रहौं।
मोको तौ सकल सदा एकहि रस दुसह दाह दारून दहौं।3।
उचित अनाथ होइ दुखभाजन भयो नाथ! किंकर न हौं।
अब रावरो कहाइ न बूझिये , सरनपाल !साँसति सहौं।4।
महाराज! राजीवबिलोचन! मगन-पाप-संताप हौं।
तुलसी प्रभु! जब तब जेहि तेहि बिधि राम निबाहे निरबहौं।5।