विनयावली / तुलसीदास / पद 31 से 40 तक / पृष्ठ 3
पद 35 से 36 तक
(35),
कटु कहिये गाढ़े परे, सुनि समुझि सुसाईं।
करहिं अनभलेउ को भलेा, आपनी भलाई।1।
समरथ सुभ जो पाइये, बीर पीर पराई।
ताहि तकैं सब ज्यों नदी बारिधि न बुलाई।2।
अपने अपनेकेा भलो, चहैं लोग लुगाई।
भावै जो देहि तेहि भजै , सुभ असुभ सगाई।3।
बाँह बोलि दै थापिये, जो निज बरिआई।
बिन सेवा सों पालियं, सेवककी नाईं।4।
चूक-चपलता मेरियै, तू बड़ो बड़ाई।
होत आदरे ढीठ है, अति नीच निचाई।5।
बंदिछोर बिरूदावली, निगमागम गाई।
नीको तुलसीदासको, तेरियै निकाई।6।
(36)
,
मंगल-मूरति मारूत -नंदन।
सकल-अमंगल -मूल-निकंदन।1।
पवनतनय संतन-हितकारी।
हृदय बिराजत अवध-बिहारी।।2।
मातु-पिता, गुरू, गनपति, सारद।
सिवा-समेत संभु, सुक, नारद।3।
चरन बंदि बिनवौं सब काहू।
देहु रामपद-नेह-निबाहू।4।
बंदौं राम-लखन-बैदेहीं।
जे तुलसीके परम सनेही।5।