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विनयावली / तुलसीदास / पद 51 से 60 तक / पृष्ठ 4

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पद संख्या 57 तथा 58

(57)
  
देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग!
भवभंग-कारण शरण-शोकहारी।
 ये तु भवदंघ्रिपल्लव- समाश्रित सदा, भक्तिरत, विगतसंशय, मुरारी।1।

असुर,सुर नाग, नर, यक्ष, गंधर्व, खग, रजनिचर, सिद्ध, ये चापि अन्नेे।
संत-संसर्ग त्रेवर्गपर, परमपद, प्राप्य निःप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने।2।

वृत्र, बालि, बाण, प्रहलाद, मय, व्याध, गज, गृन्ध्र, द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी।
 साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल, श्रव्पच- यवनादि कैवल्य-भागी।3।

 शांत , निरपेक्ष, निर्मम,निरामय, अगुण, शब्दब्रह्मैकपर, ब्रह्मज्ञानी।
दक्ष, समदृक, विब अति स्वपरमति, परमरनिविरत तव चक्रपानी।4।

विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा, त्यत्तमदमन्यु, क्रत पुण्यरासी।
 यत्र तिष्ठन्ति, तत्रैव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी।5।

वेद-प्य सिंधु, सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निर्मथनकर्ता।
सार सतसंगमुद्धृत्य इति निश्चिंतं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता।6।

 शोक-संदेह, भय-हर्ष , तम-तर्षगण, साध्ु-सद्युक्ति विच्छेदकारी।
यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू- निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी।7।

यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोति संकट अनेकं।
तत्र त्वद्भक्ति, सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं।8।

 प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।
संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी।9।

(58),

देव-
देहि अवलंब कर कमल, कमलारमन, दमन-दुख, शमन -संताप भारी।
अज्ञान-राकेश-ग्रासन विधुंतुद, गर्व-काम-करिमत्त-हरि, दूषणारी।1।

वपुष-ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका-दुर्ग, रचित मन दनुज मय रूपधारी।
 विविध कोशौघ, अति रूचिर-मंदिर -निकर, सत्वगुण प्रमुख त्रैकटककारी।2।

कुणप-अभिमान सागर भयंकर घोर, विपुल अवगाह, दुस्तर अपारं।
 नक्र -रागादि-संकुल मनोरथ सकल, संग-संकल्प वीची-विकारं। 3।

मोह दशमौलि, तद्भ्रात अहँकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी।
लोभ अतिकाय, मत्सर मनोहर दुष्ट, क्रोध पापिष्ठ-विबुधांतकारी।4।

द्वेष दुर्मुख, दंभ खर , अकंपन कपट, दर्प मनुजाद मद-शूलपानी।
अमितबल परम दुर्जय निशाचर-निकर सहित षहवर्ग गो-यातुधानी।।5 ।

 जीव भवदंघ्रि-सेवक-विभीषण बसत मध्य दुष्टाटवी ग्रसितचिंता।ं
नियम -यम- सकल- सुरलोक -लोकेश लंकेश -वश नाथ! अत्यंत भीता।6।

ज्ञान अवधेश-गृह गेहिनी भक्ति शुभ,तत्र अवतार भूभार हर्ता।।
 भक्त -संकट अवलोकि पितु-वाक्य कृत गमन किय गहन वैदेहि -भर्ता।7।

 कैवल्य -साधन अखिल भालु मर्कट विपुल ज्ञान-सुगी्रवकृत जलधिसेतू।।
प्रबल वैराग्य दारूण प्रभंजन-तनय, विषय वन भवनमिव धूमकेतू।8।

दुष्ट दनुजेश निर्वशकृत दासहित विश्वदुख-हरण बोधैकरासी।
अनुज निज जानकी सहित हरि सर्वदा दासतुलसी हृदय कमलवासी।9।