पहाड़ी गांव में कोहबर पेंटिंग को देखकर / लक्ष्मीकान्त मुकुल
पहाड़ी चट्टान को देखते हुए
कहा था मित्रों ने
कि जरूर किसी बिसभोर चहवाहे ने
बिरहा गाते हुए बना दिया होगा
कंदरा की इन छतों पर कोहबर-चित्रा।
घने बीहड़ जंगल में
दुबका होता है सदियों का रक्तरंजित इतिहास
जहां खतरनाक वृत्तियों के राजकुमार
हाथियों से पफसलों को रौंदते हुए
करते होंगे हिरणों के हिंसक अहेर
तब किसी सरहंग चरवाहे ने
कैसे किया होगा
‘कनुआ-कनुनिया’ सा रतिकर्म का साहस
...लाठी कमर थामे दूर ताकती है पहाड़ी
चमक उठता है भोर का उजास
डोलने लगती है खिरनी की पत्तियां
चहकने लगता है पहाड़ तक पसरा हुआ गांव...
प्रेमिका के विरह में वह पागल रंग डाला होगा
बांस व सूअर के बाल की कूंची से
डुबोया होगा बार-बार किसी मटके में उसे
सहेजा होगा सजगता से कंदराओं को
गेरूए-काले और सपफेद परतों की रेखाओं में
सिर उठाती पफाटियों पर गौर करते ही
दीख जाती हैं
घोड़े-मगर, तोते, हिरणों की छायाएं
भागता जाता दुरंगी नीलगायों का झुंड
बिखरे होते हैं
लवंग-पान व सुपारी के खंड
पुरइन के पात डोलते हैं समय के साथ
नाचते हैं जिसमें नर्तक
होता है गैंडों का आखेट
होती एक पालकी, जिसे ढोते हैं कहार
पूरा युग ही उतर आता है
हमारी इन आंखों में
दो टुक सुनाया था उस हलवाहे ने
जोड़ते हुए आल्हा की कड़ियों में
लोरिक-चंदा की प्रेमलीलाएं
जिसने सजाये थे मंड़वे
और मिलन के पूर्व लेप दिये थे चट्टानों पर
जिनसे उभर आती हैं अब तक आकृतियां
जैसे धुंधले पड़ते जा रहे रिश्तों के युग में
अब भी कहीं दीख जाता है ‘प्रेम’
जी उठती है पृथ्वी
अब भी अपनी संभावनाओं के साथ।