पाठक के लिये चेतावनी / निकानोर पार्रा / उज्ज्वल भट्टाचार्य
लेखक अपनी रचना से पैदा होने वाले किसी सवाल का
जवाब नहीं देगा :
यह पाठक के लिए मुश्किल हो सकता है
लेकिन अब से उसे इस बात को स्वीकार करना है ।
पवित्र ट्रिनिटी<ref>ईसाई धर्म में त्रिदेव की अवधारणा है यानी तीन सर्वोच्च देवता हैं। ये देवता हैं -- पवित्र आत्मा, पिता (ईश्वर) और पुत्र (ईसा)। इनमें से पिता और पवित्र आत्मा ईसा के जन्म से पहले मरियम से मिलने आए थे।</ref> की अवधारणा को चीथड़ा-चीथड़ा कर देने के बाद
क्या महान व्यंग्यकार और धर्मशास्त्री साबेलियुस<ref>तीसरी सदी के एक ईसाई धर्मशास्त्री, जो त्रिदेव की इस अवधारणा को नकारते थे। उनके अनुसार ईश्वर एक है और उसके तीन प्रतीक नहीं हो सकते</ref> ने
अपनी धर्मविरोधी बातों की कोई कैफ़ियत दी थी ?
और उसने दी भी तो वह कितनी दमदार थी !
बिल्कुल सनकी अन्दाज़ में,
उसका जवाब विरोधाभासों के एक ढेर पर टिका था !
विधिवेत्ताओं का कहना है कि यह किताब छापी नहीं जानी चाहिए :
इसमें कहीं इन्द्रधनुष का ज़िक्र तक नहीं,
दुख का भी नहीं
या कण्ठीमाला का ।
हाँ, कुर्सी-मेज़ की भरमार है,
ताबूत, या डेस्क की !
वो सारी चीज़ें जिन पर मुझे फ़ख़्र है
क्योंकि मेरी राय में आसमान टूटकर बिखर रहा है ।
वे सारे नश्वर जो विटगेनश्टाइन<ref>बीसवीं सदी के प्रसिद्ध आस्ट्रियाई दार्शनिक लुडविष विटगेनश्टाइन</ref> की किताब ट्रैक्टाटस<ref>’तार्किक दर्शन की अवधारणा’ नामक इस किताब में यथार्थ और भाषा के बीच आपसी सम्बन्धों पर 526 सूत्र प्रस्तुत किए गए थे। विटगेनश्टाइन ने बाद में इन अवधारणाओं से दूरी बना ली, लेकिन वियना क्लब के उनके अनुयायियों के बीच यह पुस्तक अत्यन्त लोकप्रिय हुई थी।</ref> पढ़ चुके हैं
अपना सीना पीट सकते हैं
क्योंकि उसे पा सकना मुश्किल है :
लेकिन वियना का क्लब अरसों पहले टूट चुका है,
बिना कोई सुराग छोड़े उसके लोग बिखर गए
और मैंने चन्द्र-पदक पाने वाले नायकों<ref>आर्डन ऑफ़ क्रिसेण्ट का मूल इतालवी नाम आर्डन ऑफ़ लूना (चन्द्रमा) क्रिसेण्ट था। इस पदक की स्थापना सन 1268 में नेपल्स और सिसली के राजा चार्ल्स प्रथम ने की थी। बाद में येरुशलम के राजा रेने प्रथम ने 1464 में यह पदक फिर से देना शुरू किया। आम तौर पर यह पदक ईसाई धर्मयुद्ध लड़ने वाले और उनमें वीरता दिखाने वाले नायकों को दिया जाता था। </ref> के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने की बात सोची है।
मेरी कविता शायद ही कहीं पहुँचाएगी :
“हंसी यहाँ डिब्बाबन्द है !” मेरे विरोधी कहेंगे,
“सिर्फ़ घड़ियाली आंसू !”
“आह के बदले इन्हें पढ़कर जम्भाई आती है”
“यह तो सीने से चिपकने के लिये बच्चे की तरह चीख़ता है और हाथ-पैर मारता है”
“लेखक छींकता है ताकि लोग उसकी ओर देखें”
ठीक है : आओ, अपने जहाज़ जला डालो,
फ़्युनिशियन की तरह, मैं अपना ही ककहरा तैयार करने की कोशिश करता हूँ ।
“फिर लोगों को क्यों परेशान करते हैं ?” मित्र पाठक पूछेंगे :
“अगर लेखक ख़ुद अपनी रचना की मलामत करने लगे,
उसमें क्या अच्छाई हो सकती है ?”
देखो जी, मैं मलामत नहीं कर रहा
या यूँ कहा जाए, मैं अपने नज़रिए की तारीफ़ ही करता हूँ,
मुझे अपनी खामियों पर फ़ख़्र है
अपनी रचना की बेशुमार तारीफ़ करता हूँ ।
ऐरिस्टोफ़ेनेस<ref>ईसा पूर्व पाँचवी सदी के एक यूनानी नाटककार जिनका प्रसिद्ध नाटक है -- Ornithes या पंछी</ref> के पँछी
अपने माँ-बाप को दफ़न करते थे
अपने ही सिर में
(हर पँछी एक उड़ता हुआ मकबरा होता था) ।
मेरा मानना है
वक़्त आ चुका है कि इस रवायत को फिर से जिलाया जाय
इसलिये मैं काँटों को पाठकों के सिर में दफ़नाता हूँ !
अँग्रेज़ी से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य