पावतो अहार मन भावतो अधिक ,
एक सेर अरहरि की जु दाल और दलतो ।
चूल्हो न जरायो तापै माँगत है भोजन ,
सरम नाहिँ तोको करि कारो मुख टलतो ।
तेरी हौँ गुलाम केधौँ मेरो तैँ गुलाम ,
करु काम न अराम को इहाँ है फल फलतो ।
कहत लुगाई ऎरे पति पशु मेरे ,
तोपै लादती गरभ जो पै मेरो बस चलतो ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।