भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पावस - 3 / प्रेमघन
Kavita Kosh से
चंचला चौंकि चकी चमकै, नभ वारि भरे बदरा लगे धावन।
कुंजन चातक मंजु मयूर, अलाप लगे ललचाय मचावन॥
छाय रह्यो घनप्रेम सबै हिय, मानिनी लाग्यो मनोज मनावन।
साजन लागीं सिंगार सजोगिन, आवत ही मनभावन सावन॥