पुण्य कर्म का ही हो वंदन / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
कैसे लिक्खूँ अपनी कविता,
शुचि भावों के बिम्ब गढ़ाकर।
समय अभी अनुकूल नहीं है;
कैसे कुछ लिक्खूँ बिसराकर?
समय वक्र पथ पर है अब तक,
कहीं आत्मसंतोष नहीं है।
कर्म लेख की कठिन परीक्षा,
मंगल, शनि का दोष नहीं है।
एक साथ में कई विपतियों
को लेकर तुम आ जाते हो।
किसी उत्स धारा के जैसे,
नैनों से जल ढुलकाते हो।
सुनो! कलम तुम कभी न रुकना,
चाहे कवि निरुपाय पड़ा हो।
तुम पृष्ठों पर बहते जाना,
यद्यपि मग में अचल खड़ा हो।
काव्यगगन के सूरज चन्दा,
मुझको सम्बल देते जाना।
पूज्यपाद हर कविता पुस्तक,
मुझे तपोबल देते जाना।
बिपत काल तुम विदा माँग लो,
विमुद जीवनी से अब मेरी।
ओ! दुष्कर अध्याय समय के,
नगरी कब तक रहे अँधेरी?
ओ! मेरे दुर्दिन निष्ठुर से,
जाओ अब क्या काम तुम्हारा?
ओ! मतवाले समय चक्र तुम,
शुभ दिन ला होना पौ बारा।
उहापोह के संकल्पो अब
तुम्हें तिलाञ्जलि देता हूँ मैं।
दृढ़ विश्वासों के तट जाकर,
गंगाजली उठाता हूँ मैं।
मुझे पता है मेरी कविते!
मुझे ईश में ही खोना है।
और जगत में गंगा जैसे,
रोज रोज पंकिल होना है।
तो फिर शुचि भावों की गगरी,
क्यों ना शुचि कर्मों से भर दूँ?
और किसी रोते आनन पर,
सुख के सब पर्वों को रख दूँ।
रख दूँ अपने हिस्से का सब,
भोज पदारथ उनके सम्मुख।
दो टुकड़े पा सके न अब तक,
श्रम से भीगे जिनके श्रीमुख।
इसी चाह में चलती श्वाँसे,
पुण्य कर्म का ही हो वंदन।
और यही अभिलाषा किञ्चित,
दैहिक कण महके बन चंदन।