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प्यार करते हुए / विमलेश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
शब्दों से मसले हल करने वाले बहरूपिए समय में
मैं तुम्हें शब्दों में प्यार नहीं करूँगा
नीम अँधेरे में डूबे कमरे के रोशन छिद्र से
नहीं भेजूँगा वह ख़त
जिस पर अंकित होगा
पान के आकार का एक दिल
और एक वाक्य में
समाए होंगे सभ्यता के तमाम फ़लसफ़े
कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
मैं खड़ा रहूँगा अनंत प्रकाश वर्षों की यात्रा में
वहीं उसी खिड़की के समीप
जहाँ से तुम्हारी स्याह ज़ुल्फ़ों के मेघ दिखते हैं
हवा के साथ तैरते-चलते
चुप और बेआवाज़
नहीं भेजूँगा हवा में लहराता कोई चुंबन
किसी अकेले पेड़ से
पालतू खरगोश के नरम रोएँ से
या आइने से भी नहीं कहूँगा
कि कर रहा हूँ मैं
सभ्यता का सबसे पवित्र
और सबसे ख़तरनाक कर्म...