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प्यास की ताप / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
जीवन के बीहड़ पठार पर बहती आती
यह पथरीली नदी
घुले हैं जिसके जल में
गाँव, नगर, घर, जंगल, पर्वत
सारे संभव आकारों के पार
एक आकार अकल्पित
जगता रहता इस पथरीली
जटिल नदी की
अंतःसलिला धाराओं में
इसीलिये जब आता कोई
लेकर अपनी प्यास
नदी के पत्थर बरबस पसीजते हैं
सात रंग की सात स्वरों की नवरस की धाराएँ उनसे
अपने आप छलकने लगती
जैसे माँ का आँचर गीला हो उठता है
गाढ़ा मीठा धैर्य धरा का
भरा हुआ है
इन्हीं पत्थरों के अन्तस् में
ये पिघलेंगे
इन्हें प्यास का ताप चाहिये