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प्रथम मुण्डक / द्वितीय खण्ड / मुण्डकोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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वेदों के मंत्रो में था देखा, ऋषियों ने जिन कर्मों को,
ऋग, साम, यजुः, में, व्याप्त जो, जीवन के सात्विक धर्मों को।
इन नियमों का हे सत्य प्रिय ! तुम आचरण नियमित करो।
शुभ कर्म फल का मार्ग यह, जग की विषमता से तरो॥ [ १ ]

जब प्रज्ज्वलित होवे हविष्या, अग्नि की ज्वाला अति,
तब ही डालें प्रज्ज्वलित अग्नि के मध्य में आहुति।
भाज्य भाग की दोनों आहुतियों का स्थल छोड़कर,
मध्य अग्नि प्रचंड हो,तुब डालें आहुति ॐ कर॥ [ २ ]

जो चातुर्यमासव् पूर्ण मासी, अमावस्या की दृष्टि से।
ऋतु बसंत शरद के नूतन अन्न आहुति दृष्टि से।
हैं रहित यज्ञ व् अतिथि आदर भी न जिनको प्रेय है।
उस अग्नि होत्री के पुण्य क्षीण न यज्ञ वृति भी श्रेय है॥ [ ३ ]

काली कराली अग्नि चंचल, उग्र अति सुलोहिता,
चिंगारी मय सुध्रूम वर्णा, दीप्तिमय मन मोहिता।
ये विश्व रूचि स्फुलिंग्नी, जिव्हाएं अग्नि की सप्त हैं
ग्राह्य आहुति जबकि अग्नि, लपलपाती तप्त हैं॥ [ ४ ]

जो अग्निहोत्री कोई भी, इन दीप्तिमय ज्वालाओं में,
करे अग्निहोत्र को यथाकाले, शास्त्र विधि की विधाओं में।
उसकी ही आहुतियाँ रवि की रश्मियों के रूप में,
हैं मरण काले साथ जातीं, देव लोक अनूप में॥ [ ५ ]

ऋत अग्निहोत्री की मरण काले, दी हुई आहुति सभी,
शुभ स्वस्तिमय साधक को बन, साधन भी बन जातीं तभी।
रवि रश्मियों के मार्ग से, जा ब्रह्म को वे पा सकें,
शुभ पुण्य कर्मों से ब्रह्म लोक की वाणी को अपना सकें॥ [ ६ ]

शुभ साधना से हीन यज्ञ व् कर्म जो भी सकाम हैं,
वे हीन श्रेणी के कर्म मूढ़ को, लगते फ़िर भी प्रधान हैं।
इनको परम सुख श्रेय प्रेय व मुक्ति का मग मानते,
पुनि -पुनि वे ही मृत्यु ज़रा को भोगते व् जानते॥ [ ७ ]

मिथ्याभिमानी मूढ़, ज्ञानी, स्वयं को जो मानते,
अतिमूढ़ अज्ञानी, नहीं वे ब्रह्म को हैं जानते।
ज्यों अंधे को अंधा दिखाये, मार्ग पर मिलता नहीं,
त्यों मूढ़ पुनि- पुनि जन्मता, मरता है पर तरता नहीं॥ [ ८ ]

जो भी अविद्या मग्न हैं,वे सब सकामी मूढ़ हैं,
कल्याण पथ से अबोध हैं वे, तत्व ब्रह्म के गूढ़ हैं।
जो भोगों में आसक्त वे क्या जानें परमानन्द को,
पुनि क्षीण होते पुण्य तब, आतुर हों ब्रह्मानंद को॥ [ ९ ]

अज्ञानी अति जो सकाम कर्मों को, श्रेष्ठ माने, श्रेय को।
नहीं जानते व् निमग्न हैं, पाने को भोग को प्रेय को।
जब पुण्य उनके क्षीण हों, तो लेते पुनि- पुनि जन्म हैं,
वे जन्म लेते मनुज लोके या मनुज से भी निम्नं हैं॥ [ १० ]

कोई ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, गृहस्थ्य या संन्यासी हो,
यदि तम, रजोगुण हीन हों, रवि लोक के वे वासी हों।
जहाँ जन्म मृत्यु विहीन शाश्वत, नित्य अविनाशी रहे,
विभु पूर्ण पुरुषोत्तम जनार्दन, सत्य अति अद्भुत महे॥ [ ११ ]

नहीं ब्रह्म मिलता कदापि उसको, कर्म जिसके सकाम हों
स्पष्ट नित्य अनित्य जिसको, वृति भी निष्काम हो।
जिज्ञासु वे जन, हाथ में समिधा को लेकर विनत हों,
जाएँ गुरु के पास, वेदों का मर्म जानें, प्रणत हों॥ [ १२ ]

मन बुद्धि, इन्द्रियों पर नियंत्रण, शांत जिसका चित्त हो,
यम् शम दम आदि युक्त हो, जग से विरागी वृति हो।
एसे ही शरणागत विवेकी, शिष्य को गुरु ज्ञान का
जब तत्व विधिवत ऋत कहे, तब नाश हो अज्ञान-का॥ [ १३ ]