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द्वितीय मुण्डक / प्रथम खण्ड / मुण्डकोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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ज्यों प्रज्ज्वलित अग्नि से निःसृत, सैकडों चिंगारियां,
सम रूप की उद्भूत हों, व् विलीन हो जाएँ वहाँ।
त्यों शिष्य प्रिय यह सृष्टि भी, अविनाशी से उद्भूत है,
और उसी में विलीन होकर, रूप इनके प्रभूत हैं॥ [ १ ]

वह पूर्ण पुरुषोत्तम अजन्मा, दिव्य अनुपम पूर्ण है,
है प्राण मन से विहीन विभु, अमूर्त है, सम्पूर्ण है।
आकार हीन विशुद्ध व्यापक, सकल सृष्टि में व्याप्त है।
संसार में सब कुछ यहॉं, उसकी कृपा से ही प्राप्त है॥ [ २ ]

मन, प्राण, इन्द्रिय, अग्नि, जल,भू, वायु, नभ संसार को,
सब प्राणियों के रचयिता, वंदन है रचनाकार को।
मन प्राण हीन तथापि सब कुछ कर सके वह समर्थ है,
उस आत्मभू अखिलेश के, अद्भुत महिम सामर्थ्य है॥ [ ३ ]

उस ब्रह्म का द्यु लोक मस्तक, चंद्रमा रवि नेत्र हैं,
वाणी ही विस्तृत वेड और चारों दिशाएं श्रोत्र हैं।
यह चराचर जग ह्रदय और वायु प्राण अचिन्त्य की,
हैं पग धरा, सब प्राणियों में आत्मा आद्यंत की॥ [ ४ ]

है अग्नि तत्व प्रगट विभो से, जिसकी समिधा सूर्य है,
मेघ सोम से, मेघों से औषधियां मिलती अपूर्व हैं।
सेवन से करता पुरूष वीर्य का, नारी में संचार है,
ऐसे चराचर जग के मूल में, ब्रह्म तत्व प्रसार है॥ [ ५ ]

ऋग, साम, यजुः के मन्त्र श्रुतियों, दक्षिनाएँ दीक्षा भी,
शुचि यज्ञ, ऋतु, यजमान लोका काल संवत्सर सभी।
वे लोक सब जहॉं सूर्य शशि, करते प्रकाशित तेज हैं,
अणु-कण से ले ब्रह्माण्ड तक, सब ब्रह्म के ही ओज हैं॥ [ ६ ]

परब्रह्म से ही विविध देव व् साध्य गण निष्पन्न हैं,
पशु, पक्षी, प्राण, अपान वायु व् अन्न जौ उत्पन्न हैं।
तप श्रद्धा सत्यम, यज्ञ विधि व् ब्रह्मचर्य, विधान भी,
मानव, जगत, ब्रह्माण्ड के, अणु कण चराचर प्राण भी॥ [ ७ ]

यह सप्त समिधाएं विषय रूपी व् सातों अग्नियाँ,
सात भाँति के होम, लोक व् प्राण सातों इन्द्रियाँ।
समुदाय सप्त के हृदय रूपी गुफा में जब सोते हैं,
इन सभी के मूल में परमेश तत्व ही होते हैं॥ [ ८ ]

बहु रूप नदियाँ जलधि बहते, और गिरि अतिशय महे,
सम्पूर्ण औषधियां व् रस, उत्पन्न प्रभु अद्भुत से हे !
जिस रस से पुष्ट, शरीरों में, उन प्राणियों की आत्मा,
बन उनके हृदयों में बसे, अन्तर्निहित परमात्मा॥ [ ९ ]

अति परम अमृत रूप ब्रह्म व् कर्म तप संसार के,
विश्वानि पुरषोत्तम के ही, सब रूप करुनाधार के।
हृदय रूपी गुफा स्थित ब्रह्म को, शौनक प्रिय जो जान ले,
अज्ञान- ग्रंथि को खोल वह, प्रभुवर की सत्ता मान लें॥ [ १० ]