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द्वितीय मुण्डक / द्वितीय खण्ड / मुण्डकोपनिषद / मृदुल कीर्ति

प्रभु हृदय रूप गुफा में स्थित, सो गुहाचर नाम है,
ज्योतिर्स्वरूप समीप अति, अति परम पद है महान है।
सब प्राणधारी हैं प्रतिष्ठित, उस ब्रह्म में संसार के,
वरणीय अतिशय श्रेष्ठ शुचि, अज्ञेय करुनागार के॥ [ १ ]

सूक्ष्मातिसूक्ष्म जो दीप्ति मय, अविनाशी ब्रह्म महान है,
सब लोक और सब लोकवासी, ब्रह्म मय हैं प्रधान हैं।
वही ब्रह्म प्राण हैं, ब्रह्म वाणी, सत्य मन अमृत वही,
हे सौम्य !वेधन योग्य लक्ष्य में, लीन हो न भटक कहीं॥ [ २ ]

ज्यों लक्ष्य भेदन से प्रथम ,वाणों को करते तीक्ष्ण हैं,
त्यों आत्मा रूपी वाण पूजा से तीक्ष्ण हो यदि क्षीण हैं।
आराधना से तीक्ष्ण शर, धनु पर चढाये भक्ति से,
हे सौम्य खींचो लक्ष्य बेधो, ॐ भाव की चिट्टी से॥ [ ३ ]

ओंकार धनु जीवात्मा शर, ब्रह्म उसका लक्ष्य है,
ओंकार में हों प्राण लय, नहीं ब्रह्म का समकक्ष है।
बस अप्रमादी मनुज से ही बींधा जाने योग्य है,
उसे बींध कर तन्मय हो जो, वही लक्ष्य पाने योग्य है॥ [ ४ ]

यह स्वर्ग, भू, द्यौ , प्राणि, मन, अंतःकरण सब जगत के,
विश्वानि विशेश्वर मयीसे ओत प्रोत हैं महत के।
उसी एक सबके आत्म रूप, प्रभो को तुम सब जान लो,
शेष त्याग दो, ब्रह्म को ही, अमिय सेतु मान लो॥ [ ५ ]

नाभि में रथ की अरों सम, स्थित ह्रदय में नाडियाँ,
एकत्र स्थित हैं हृदय में, वास प्रभु करते वहाँ।
एक ॐ नाम के सतत चिंतन, से ही प्रभुवर साध्य है,
अज्ञान-तम से अतीव हो, तो सिन्धु भव निर्बाध है॥ [ ६ ]

प्रभु सर्व जित सर्वज्ञ, जिसकी विश्व में महिमा मही,
प्राणों का अधिनायक रुचिर, नभ रूप, नभ स्थित वही।
वही अन्नमय स्थूल तन में, प्राणियों के है यही,
जिसे ज्ञानियों ने ज्ञान से, प्रत्यक्ष कर महिमा कही॥ [ ७ ]

परब्रह्म परमेश्वर परात्पर, कार्य कारण रूप को
जो तत्व से जाने, तब ही जाने, अचिन्त्य अरूप को,
जीवात्मा की हृदय की गांठे, अविद्या की खुलें,
अथ कर्मों के बंधन कटें, जीवात्मा प्रभु से मिले॥ [ ८ ]

परब्रह्म अधिकारी विमल जो सर्वथा ही विशुद्ध है,
अवयव रहित है, अचिन्त्य, अद्भुत, जानता जो प्रबुद्ध है,
सब ज्योतियों की ज्योति, जिसको आत्म ज्ञानी जानते,
अति दिव्य ज्योति का मूल कोष, तो ब्रह्म को ही मानते॥ [ ९ ]

न तो रवि न ही चंद्र तारा और न ही बिजलियाँ,
उस स्व प्रकाशित ब्रह्म के तो समीप न ही अग्नियाँ।
होती प्रकाशित, ब्रह्म तो सब ज्योतियों का मूल है,
उससे प्रकाशित जग चराचर, सूक्ष्म है स्थूल है॥ [ १० ]

वह दाएँ, बाएँ, आगे, पीछे, उर्ध्व नीचे चहुँ दिशा,
में व्याप्त व्यापकता परम की, व्याप्त ब्रह्म है एक सा।
बहु सर्व व्यापकता प्रभो की, एक सी अणु-कण में है,
वह विश्व में ब्रह्माण्ड में, परब्रह्म तो हर क्षण में है॥ [ ११ ]