तृतीय मुण्डक / प्रथम खण्ड / मुण्डकोपनिषद / मृदुल कीर्ति
मानव शरीर को मानो जैसे, एक वृक्ष का रूप है,
जहाँ जीव ईश्वर ह्रदय नीड़ में, रहते मित्र स्वरुप हैं।
जीवात्मा खग कर्म फल के राग द्वेष से युक्त है,
परमात्मा निष्काम वृति से देखता व् मुक्त है॥ [ १ ]
जीवात्मा मोहित निमग्न है, और अति आसक्त है,
बहु शोक तापों से ग्रसित, फ़िर भी नहीं वह विरक्त है।
जो नित्य प्रिय शुचि अति सुह्रद भक्तों से सेवित ईश को,
प्रत्यक्ष जीवात्मा करे, तब पाये निश्चय ईश को॥ [ २ ]
जब ब्रह्म के भी आदि कारण, पूर्ण पुरुषोत्तम प्रभो,
जो जग रचयिता सबके शासक, आत्मभू अद्भुत विभो।
का दिव्या दर्शन, सौम्य दर्शन कर सके जीवात्मा,
हों शेष उसके पुण्य पाप व् पाये वह जीवात्मा॥ [ ३ ]
यह सर्व व्यापी ब्रह्म सबके प्राण हैं इस तथ्य को,
जो जानते मितभाषी वे, करते न व्यर्थ के कथ्य को।
इश्वर में ही प्रति पल रमण, जिसे ईशमय संसार है,
भक्त ऐसा ब्रह्म वेत्ताओं में, श्रेष्ठ अपार है॥ [ ४ ]
परब्रह्म अंतःकरण स्थित, शुचि शुभ्र ज्योतिर्मय प्रभो,
मित सत्य भाषण, ब्रह्मचर्य, व् ज्ञान तप से ही विभो।
है प्राप्त केवाल्तत्व सम्यक, ज्ञान से निर्दोष को,
बहु यत्न शील ही पा सकेंगे, सत्य ब्रह्म विशेष को॥ [ ५ ]
जय जयति शाश्वत सत्य की, होती असत्य की जय कहाँ,
यही देवपथ है सत्यमय, ऋषि पूर्ण काम गमन जहाँ।
कहते वहां सत्यस्वरूपी, ब्रह्म रहते हैं सदा।
वे सत्य मय पथ ब्रह्म तक होते प्रशस्त हैं सर्वदा॥ [ ६ ]
अन्वेषियों की ह्रदय रूप गुफा में ब्रह्म का वास है,
वह दूर से भी दूर है, अत्यन्त अतिशय पास है।
सूक्ष्म से अति सूक्ष्म रूप में, ब्रह्म दिव्य महान हैं,
आद्यंत हीन अचिन्त्य अद्भुत बृहत ब्रह्म विधान हैं॥ [ ७ ]
न तो नेत्रों से न ही वाणी से, न ही इन्द्रियों से ग्राह्य है,
तप साधना कर्मों के भी बहु बंधनों से बाह्य है।
अवयव रहित उस ब्रह्म को तो, शुद्ध अंतःकरण से,
ही पाये साधक विमल ज्ञान की शुद्ध शुद्धि करण से॥ [ ८ ]
जिसके शरीर में पाँच भेदों वाला प्राण प्रविष्ट है,
उस हृदय मध्ये सूक्ष्म जीवात्मा वही है, विशिष्ट है।
यदि हो विरत भोगादि से, निश्चय ही पायें शचीपते,
आसक्त वे जो पा सकेंगे, भोग इच्छित मन मते॥ [ ९ ]
अति शुद्ध अन्तः करण वाला व्यक्ति जिस-जिस लोक का,
चिंतन करे एकाग्र मन तो भागी हो उस भोग का।
आत्मज्ञ स्व बहुजन हिताय, कर्म करते हैं प्रिये,
अति पूज्य हों ज्ञानी उन्हें, ऐश्वर्य जिनको चाहिए॥ [ १० ]