भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रहार / वानिरा गिरि / सुमन पोखरेल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 ए, प्रहार
तुम्हारे परशु का
सशक्त पहला आघात
मुझसे ही शुरू करो।
दो आँखों की नालीयों से
इस तरह बहकर खत्म हो जाएं पानी की धाराएँ
आँखें सूखाग्रस्त हो जाएँ मेरी
हरे-भरे बन जाएं तुम्हारे खेत
और पकती रहें प्रहार की फसलें।
तुम और मैं
दिल से मिलकर एकाकार हो जाएँ
हमेशा-हमेशा के लिए।

कितना दिलचस्प है
एक दिन
सांझ होते-होते
चौराहे पर तुमसे
अचानक मिलना हुआ।
मेरा
खुद को संभालने से पहले ही
अचानक बलात्कार किया तुमने।
उस समय के
वे क्रूर आत्मीय क्षणों के गवाह
ख़ून के कुंवारी धब्बे
सिनाख्त न हुए लावारिश लाशों की तरह
बिखरे पड़े हैं चौराहे के पत्थरों और कंकड़ों पर।
हर बार,
हर दिन,
हर पहर,
हर पल
आते-जाते वक्त वे धब्बे
झलक-झलक
दिलाते रहते हैं मुझे तुम्हारी याद।
और प्रहार, इस तरह से अब तो
तुम मेरी
याद बन चुके हो।

प्रहार,
शुरुआत में
तुम्हारा हर मार मेरे लिए
आग की लपट होता था,
कांटे की चुभन होता था,
खुकरी की धार होती थी,
अमावस्या की रात होती थी।
लेकिन आजकल
तुम्हारी हर चोट एक स्पर्श बन गयी है।
मैं स्वयं आग जलाने वाली चूल्हा बनी हुई हूँ,
कांटे उगाने वाली झाड़ी बनी हुई हूँ,
खुकरी रखने की म्यान बनी हुई हूँ,
नागिन के विषैले दांत बनी हुई हूँ,
अमावस्या की अंधेरी रात बनी हुई हूँ।

और
जैसे सर्कस में बाघिन को मगन कराते हैं,
जैसे सपेरे की बीन नागिन को मुग्ध करती है,
प्रहार,
तुमने कितनी जल्दी मुग्ध किया मुझे।
अब तो
तुम और मैं
नाखून और मांस बन गए हैं,
कंजूस और पैसा बन गए हैं,
छोटा रास्ता और पाँव बन गए हैं।
चलो मेरे ऊपर
संपूर्ण चोरी और डकैती के साथ।
यह निश्चित है
तुम थक सकोगे,
मैं नहीं थकूंगी।

मुझमें उगे हुए
जिंदगी के रंग-बिरंगे सपनों को
तुम्हारे विध्वंसक आँधियों के झोंके से
तहस-नहस बना दो,
ध्वस्त कर दो।
प्रहार,
तुम्हारी विशालकाय स्वरूप से जकड़ लो मुझे,
तुम्हारी लपलपाती दावानल की जीभों से चाट लो मुझे।
पर उल्टा,
ढीठ बनकर
तुम्हारी चोटों को जमा किए जाने वाले तोपखाने में
सिर छुपाने आऊँगी मैं।
चलाओ चारों तरफ से गोली ही गोली,
बर्साओ चारों ओर से आग ही आग।
लेकिन पक्का है,
कान खोलकर सुन लो प्रहार,
तुम्हारा भंडार रिक्त हो जाएगा, मैं नहीं होऊँगी।
तुम्हारा भंडार खाली हो जाएगा, मैं नहीं होऊँगी।
०००