भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिरि फिरि राम सीय तनु हेरत।/ तुलसीदास
Kavita Kosh से
(14)
फिरि-फिरि राम सीय तनु हेरत |
तृषित जानि जल लेन लषन गए, भुज उठाइ ऊँचे चढ़ि टेरत ||
अवनि कुरङ्ग, बिहँग द्रुम-डारन रुप निहारत पलक न प्रेरत |
मगन न डरत निरखि कर-कमलनि सुभग सरासन सायक फेरत ||
अवलोकत मग-लोग चहूँ दिसि, मनहु चकोर चन्द्रमहि घेरत |
ते जन भूरिभाग भूतलपर तुलसी राम-पथिक-पद जे रत ||